Heartfelt Best Wishes to The Entire Globe for a Blissful RAMNAVAMI, The Day of Manifestation of Bhagwan Shree RAM…!!!!!

Heartfelt best wishes to Entire Globe for a blissful RAMNAVAMI, the day of manifestation of Bhagwan Shree RAM…!!!!!
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The great spiritual country India is going to celebrate the day of manifestation of Lord Ram which is named as Ramnavami. Let us have a metaphysical study about this most sacred occasion by having a clear concept about the real identity of Lord Ram.
When there recurs confusion about Ram, regarding his nature, personal or impersonal, his place of birth, his mode of hiring,
it is removed by a technique, a device. This very device is RAM.
Ramcharit Manas sings that by whose grace such doubts and confusions are removed, HE is but the kind hearted Ram. In other words Ram Himself is the embodiment of pure soul, pure knowledge.
As per Ramayana :
जो माया सब जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहुँ न पावा॥
सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा॥
सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज बिग्यान रूपो बल धामा॥
ब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता। अखिल अमोघसक्ति भगवंता॥
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सबदरसी अनवद्य अजीता॥
निर्मम निराकार निरमोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा॥
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी॥
इहाँ मोह कर कारन नाहीं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं॥
jo måyå saba jagahi nacåvå, jåsu carita lakhi kåhu na påvå.
soi praphu bhrµu bilåsa khagaråjå, nåca na¢∂ iva sahita samåjå.
soi saccidåna≈da ghana råmå, aja bigyåna rµupa bala dhåmå.
byåpaka byåpya akha≈Œa ana≈tå, akhila amoghasakti bhagava≈tå.
aguna adabhra girå got∂tå, sabadaras∂ anavadya aj∂tå.
nirmama niråkåra niramohå, nitya nira≈jana sukha sa≈dohå.
prakæti påra prabhu saba ura bås∂, brahma nir∂ha biraja abinås∂.
ihå°moha kara kårana nåh∂°, rabi sanmukha tama kabahu ki jåh∂.
The same Måyå that has made a puppet of the whole world and whose ways are unknown to anyone, dances with all her party like an actress on the stage to the play of the Lord ís eyebrows, O king of birds. Such is Lord Råma, who is devoid of birth, the totality of Existence, Knowledge and Bliss, wisdom personified, the home of beauty and strength. He is both pervading and pervaded, fraction less, infinite and integral, the Lord of unfailing power, attribute less, vast, transcending speech as well as the other senses, all-seeing, free from blemish, invincible, unattached, devoid of form, free from error, eternal and untainted by Måyå, beyond the realm of Prakæti (Matter), bliss personified, the Lord indwelling the heart of all, the action less Brahma, free from passion and imperishable. In Him error finds no ground to stand upon; can the shades of darkness ever approach the sun?
Ramayana explains in the following lines how does Ram look like? How does HE function? How does HE move? How does HE manage the war? How does HE live with the devotees?
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
binu pada calai sunai binu kånå, kara binu karama karai bidhi nånå.
ånana rahita sakala rasa bhogi, binu bån∂ bakatå baRa jogi.
tana binu parasa nayana binu dekhå, grahai ghråna binu båsa asesa.
åasi saba bhånti alaukika karani, mahimå jåsu jåi nahiÚ barani.
He walks without feet, hears without ears and performs actions of various kinds even without hands. He enjoys all tastes without a mouth and is a most clever speaker even though devoid of speech. He touches without a body (the tactile sense), sees without eyes and catches all odours even without a nose (the olfactory sense). His ways are thus supernatural in every respect and His glory is beyond description. And the manifestation of Lord Ram is also very thoughtful.
The great epic Ramayana confirms:
ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद॥
byåpaka brahma nira≈jana nirguna bigata binoda,
so aja prema bhagati basa kausalyå ke goda.
The unborn and all-pervading Brahma, who is untainted by Måyå, without attributes and devoid of play, has sought shelter in the arms of Kausalyå (mother of Lord Ram) conquered by her love and devotion. Kausalyå is actually the symbol of loving devotion. The root of the word Kausalyå is “KOSH”.
Etymologically Kosh means the center of wealth. The spiritual wealth is the only lasting wealth and this is stored in pure devotions. For the reason, she is known as Kausalyå.
Hence the whole exposition concludes that Lord Ram gets manifested in arms of loving devotion with pure dedications.
Humble Wishes!!!
~mrityunjayanand.
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ब्रह्म आचरणमयी प्रवृत्ति ही वानरी सेना है……!!!!!

ब्रह्म आचरणमयी प्रवृत्ति ही वानरी सेना है……!!!!!
रामचरित मानस का आध्यात्मिक दृष्टिकोण।
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यह शरीर ही अवध है; क्योंकि इसमें अवध्य स्थिति का सूत्रपात् होता है। इसके अन्तराल में दसों इन्द्रियों की निरोधमयी प्रवृत्ति ही दशरथ है-
राम नाम सब कोई कहै, दशरथ कहै न कोय।
एक बार दशरथ कहै, कोटि यज्ञ फल होय।।
राम-नाम सभी कहते हैं, दशरथ कोई नहीं कहता। यदि एक बार कोई दशरथ कह दे तो करोड़ों यज्ञ का फल होता है। फल तो इतना बड़ा, फिर भी दशरथ-दशरथ कोई नहीं जपता। सब राम-राम ही जपते हैं। जपना भी चाहिए।
वस्तुतः दसों इन्द्रियों की निरोधमयी प्रवृत्ति ही दशरथ है। दसों इन्द्रियों को संयत करके ‘राम’ का उच्चारण ही तो शुद्ध जप है। निरोध के साथ जप में करोड़ो यज्ञों का फल निहित है, किन्तु इन्द्रियाँ विषयोन्मुख हैं और जिह्ना राम-राम रटती है तो उसका यथार्थ प्रभाव नहीं होता।
परमकल्याण तो नहीं ही होता; हाँ, पुण्य-पुरुषार्थ अवश्य बढ़ता है जो कल्याण करनेवाला होता है। अतः दसों इन्द्रियों की निरोधमयी प्रवृत्ति ही दशरथ है। पहले तो यह मन उधर ही दौड़ता है ‘जहँ जहँ इन्द्रिह ताने’; किन्तु जब दसों इन्द्रियों की लगाम रथी के हाथ आ जाती है तभी पुरुष दशरथ बन जाता है। इस प्रकार इसी शरीर के अन्तराल में दसों इन्द्रियों की निरोधमयी प्रवृत्ति दशरथ है।
इसी में भक्तिरूपी कौशल्या है। आत्मिक सम्पत्ति ही स्थिर सम्पत्ति है। इसके कोश में लव अर्थात् लगन दिलानेवाली कौशल्या है। कर्मरूपी कैकेयी, सुमतिरूपी सुमित्रा, कुमतिरूपी मन्थरा, विज्ञानरूपी राम, विवेकरूपी लक्ष्मण; इस प्रकार यह दैवी सम्पत्ति भी अनन्त है।
ब्रह्म आचरणमयी प्रवृत्ति ही वानरी सेना है जिसमें अनुरागरूपी अंगद, वैराग्यरूपी हनुमान, सुरतिरूपी सुग्रीव, साधनरूपी जामवन्त इत्यादि असंख्य वानर हैं।
बानर कटक उमा मैं देखा।
सो मूरख जो करन चह लेखा।। (मानस, 4/21/1)
भगवान शंकर कहते हैं- उमा! मैंने वानरी सेना देखी। वह मूर्ख है जो उसकी गणना करना चाहता है। अर्थात् वानरी सेना अगणित थी। इधर अगणित वानरी सेना; उधर रावण की अनगिनत निशाचरी सेना। युद्धस्थल लंका। आज कुल पाँच लाख की जनसंख्या है वहाँ! छठें या सातवें लाख के लिए भी स्थान नहीं है। भारतीयों को वहाँ नागरिकता नहीं मिल रही है; क्योंकि स्थानाभाव है। उस समय करोड़, नील, पद्म तथा महाशंख से भी अधिक असंख्य निशाचर और असंख्य वानरी सेना थी। कहाँ टिके थे वे सब? लड़ते कहाँ थे? खाते कहाँ थे? क्या घटनाएँ नहीं घटीं?
घटनाएँ घटित हुईं, इसमें सन्देह नहीं है। अन्यथा इतिहास न बनता, दृष्टान्त न बनते। बाह्य घटनाओं के माध्यम से महापुरुषों ने अन्तःकरण की घटनाओं को भी इंगित किया। इन घटनाओं के माध्यम से महापुरुषों ने कुशलतापूर्वक जीवनयापन करने का मर्यादित उदाहरण प्रस्तुत किया; किन्तु सदाचारपूर्वक जी लेने मात्र से ही हमारा परमकल्याण सम्भव नहीं है।
इसलिए मनीषियो ने ऐतिहासिक कथानकों के माध्यम सेे परमकल्याण की क्रियाओं का, अन्तःकरण के संघर्ष का तथा क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के युद्ध का भी पथ प्रशस्त किया। वास्तव में शरीर ही ब्रह्माण्ड है, पृथ्वी है। इसके अन्तराल में चर-अचर, अनन्त लोक और असंख्य शरीर विद्यमान हैं। यह असंख्य निशाचरी और वानरी सेना एवं नाना प्रकार के शरीर मन में ही हैं–
मन में यथा लीन नाना तन,
प्रकटत अवसर पाये। (विनय पत्रिका, 142)
इस प्रकार शरीर में दैवी एवं आसुरी दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ हैं। आसुरी प्रवृत्तियों से एवं मोह के द्वन्द्व सेे आकुल होकर मनुष्य तीर्थों में जाता है। देवताओं और मुनियों की शरण में जाता है। ऐसी ही विकलता मनु को हुई थी–
हृदय बहुत दुख लाग, जनम गयउ हरि भगति बिनु।। (मानस, 1/142)
हृदय ग्लानि से भर गया और मनु निकल पड़े देवताओं और मुनियों की शरण में। नैमिषारण्य पहुँचे। नियम ही नैमिषारण्य है। नियम करने कहीं जाना नहीं पड़ता। केवल ‘धेनुमति तीरा’ (मानस, 1/142/5)- इन्द्रियों को बुद्धि के अधीन करना पड़ता है। इसी प्रकार यह शरीररूपी पृथ्वी भी ‘‘गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी’’ (रामचरित मानस, 1/183/7), देवी-देवताओं की शरण में जाती है, तीर्थों का आश्रय लेती है। तीर्थों से प्रेरणा मिलती है, पुण्य-पुरुषार्थ बढ़ता है; सहयोग भी मिलता है परन्तु उतने से परमकल्याण सम्भव नहीं होता। मुनियों से उपदेश मिलता है, पुण्य और बढ़ता है, भजन की विधा बढ़ती है फिर भी इतने से ही परमकल्याण नहीं हो जाता। तीर्थों ने, मुनियों ने सहयोग दिया और पृथ्वी के साथ ब्रह्मा तक गये।
अहंकार सिव बुद्धि अज,
मन ससि चित्त महान। (मानस, 6/15 क)
ब्रह्मा अर्थात् ब्रह्मस्थित महापुरुष, जिनकी बुद्धि मात्र यंत्र है, जिनके माध्यम से परमात्मा ही प्रसारित होता है, ऐसे ही महापुरुषों की वाणी का संकलन वेेद है। इसीलिए वेद अपौरुषेय हैं, क्योंकि उन महात्माओं की वाणी से अव्यक्त पुरुष मुखरित होता है।
~स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी परमहंस।©
विनम्र शुभकामनाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
                                                                         
                                                                                    🙇🙇🙇🙇🙇
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अब कृपा करो श्री राम नाथ दुख टारो….!!!!!!!

अब कृपा करो श्री राम नाथ दुख टारो।
इस भव बंधन के भय से हमें उबारौ।

 

तुम कृपा सिंधु रघुनाथ नाथ हो मेरे ।
मैं अधम पड़ा हूँ चरण कमल पर तेरे।

 

हे नाथ। तनिक तो हमरी ओर निहारो।
अब कृपा करो …

 

मैं पंगु दीन हौं हीन छीन हौं दाता ।
अब तुम्हें छोड़ कित जाउं तुम्हीं पितु माता ।

 

मैं गिर न कहीं प्रभु जाऊँ आय सम्हारो।
अब कृपा करो …

 

मन काम क्रोध मद लोभ मांहि है अटका ।
मम जीव आज लगि लाख योनि है भटका ।

 

अब आवागमन छुड़ाय नाथ मोहि तारो।
अब कृपा करो श्री राम नाथ दुख टारो ॥

 

 

विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।

 

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भये प्रगट कृपाला दीनदयाला…….!!!!!

भये प्रगट कृपाला दीनदयाला…….!!!!!
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छंद:
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला,
कौसल्या हितकारी ।
हरषित महतारी, मुनि मन हारी,
अद्भुत रूप बिचारी ॥
लोचन अभिरामा, तनु घनस्यामा,
निज आयुध भुजचारी ।
भूषन बनमाला, नयन बिसाला,
सोभासिंधु खरारी ॥
कह दुइ कर जोरी, अस्तुति तोरी,
केहि बिधि करूं अनंता ।
माया गुन ग्यानातीत अमाना,
वेद पुरान भनंता ॥
करुना सुख सागर, सब गुन आगर,
जेहि गावहिं श्रुति संता ।
सो मम हित लागी, जन अनुरागी,
भयउ प्रगट श्रीकंता ॥
ब्रह्मांड निकाया, निर्मित माया,
रोम रोम प्रति बेद कहै ।
मम उर सो बासी, यह उपहासी,
सुनत धीर मति थिर न रहै ॥
उपजा जब ग्याना, प्रभु मुसुकाना,
चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै ।
कहि कथा सुहाई, मातु बुझाई,
जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥
माता पुनि बोली, सो मति डोली,
तजहु तात यह रूपा ।
कीजै सिसुलीला, अति प्रियसीला,
यह सुख परम अनूपा ॥
सुनि बचन सुजाना, रोदन ठाना,
होइ बालक सुरभूपा ।
यह चरित जे गावहिं, हरिपद पावहिं,
ते न परहिं भवकूपा ॥
दोहा:
बिप्र धेनु सुर संत हित,
लीन्ह मनुज अवतार ।
निज इच्छा निर्मित तनु,
माया गुन गो पार ॥
– तुलसीदास रचित, रामचरित मानस, बालकाण्ड-192
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विनम्र शुभेक्षाओं सहित।
~ मृत्युञ्जयानन्द।
                                                                                    
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मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम का नीतिगत किंतु मर्यादित क्रोध…!!!!!/The ethical but dignified anger of Maryada Purushottam Lord Shri Ram….!!!!!

मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम का नीतिगत किंतु मर्यादित क्रोध।
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The ethical but dignified anger of Maryada Purushottam Lord Shri Ram.
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दोहा:
Doha:
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बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥
इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!
Although three days had elapsed, the crass ocean would not answer the Lord’s prayer. Shri Ram thereupon indignantly said, “There can be no friendship without inspiring fear.”
चौपाई :
Chaupai:
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लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥
हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति (उदारता का उपदेश),
Lakshman, bring Me My bow and arrows; I will dry up the ocean with a missile presided over by the god of fire. Supplication before an idiot, friendship with a rogue, inculcating liberality on a born miser,
ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥
ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान् की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात् ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥
talking wisdom to one steeped in worldliness, glorifying dispassion before a man of excessive greed, a lecture on mindcontrol to an irascible man and a discourse on the exploits of Shri Hari to a libidinous person are as futile as sowing seeds in a barren land.”
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥
ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी॥
So saying, the Lord of the Raghus strung His bow and this stand (of the Lord) delighted Lakshman`s heart. When the Lord fitted the terrible arrow to His bow, a blazing fire broke out in the heart of the ocean;
मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥
मगर, साँप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों (रत्नों) को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया॥
the alligators, serpents and fishes felt distressed. When the god presiding over the ocean found the creatures burning, he gave up his pride and, assuming the form of a Brahman, came with a gold plate filled with all kinds of jewels.
दोहा :
Doha:
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काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥
(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)॥
Though one may take infinite pains in watering a plantain it will not bear fruit unless it is hewed. Similarly, mark me, O king of birds, (continues kakbhushandi,) a vile fellow heeds no prayer but yields only when reprimanded.
चौपाई :
Chaupai:
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सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥
समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है॥
The god presiding over the ocean clasped the Lord’s feet in dismay. “Forgive, my lord, all my faults. Ether, air, fire, water and earth— all these, my lord, are dull by nature.
~रामचरित मानस।
Ramcharit Manas.
विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
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Devotion, a drop of the ocean….!!!

Devotion, a drop of the ocean….!!!
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राम राम रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥
राम्यते अनेन इति रामः। जो सबको प्रसन्न करता है वह राम है। दूसरा अर्थ यह है:
रमते इति रामः। जो आनंदित होता है/खेलता है वह राम है। राम उस परमात्मा को इंगित करता है जो सृष्टि का खेल खेलता है।
राम नाम की उत्पत्ति मूल शब्द रामी रामी से भी हो सकती है जो काले रंग का सूचक है। यह अर्थ अवतार राम पर लागू होता है, जो आकर्षण का अवतार थे और गहरे रंग के थे।
राम नाम दो अक्षरों, रा और मा, से मिलकर बना है
रा र का अर्थ है- अग्नि, और यह सूर्य, ऊर्जा, प्रकाश, ज्ञान, आत्मज्ञान का भी संकेत दे सकता है
म मन-मानस का प्रतिनिधित्व करता है और इसलिए आत्मा के साथ-साथ मनुष्य को भी इंगित कर सकता है।
इन अर्थों का उपयोग करते हुए, रा-मा का अर्थ वह हो सकता है जो प्रकाश/ज्ञान की ओर जाता है, जो आत्मा को परमात्मा के पास जाने का संकेत देता है। इस प्रकार, जब हम राम शब्द पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो यह आत्म-ज्ञान पर ध्यान केंद्रित करने जैसा है।
Humble Wishes.
~mrityunjayanand.
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May be an image of temple and text that says 'राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे| सहसनाम ततुल्य राम नाम वरानने।। श्री जय राम r 0ลิกน้ยรำแ้ำนัย संस्कृत4. राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे| सहसनाम ततुल्य राम नाम वरानने।। भगवान शंकर माता पार्वती कहा, "हे सुमुखी प्रभु श्री रा राम म एव वार नाम लेना विष्णुसह्स् नाम का उच्चारण करने समान है; अत: सदैव मन नक को लुभाने वाले 'राम राम' 'का ध्यान करता हू|" Source श्रीरामरक्षास्तोत्रम ।।३८।। (Lord Shankar tells Parvati o fair-faced one! Uttering 'Rama' once equal to saying Vishnusahasransm', am always saying Rama, Rama, Rama' and meditating on the mind-'
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