हे सदाशिव……….!!!

सदाशिव,
तुम्हारी दया दृष्टि के संकेत मात्र से कृपा वृष्टि का एक हल्का सा झोंका,
दो चुटकी श्रीचरण रज घोले
आज कैसे बरस पड़ा मेरे अन्तःकरण के कोने कोने में?
आज मेरे मन के अतृप्ततता की अनवरत प्यास संतृप्तता की गोद में कैसे लुढ़क पड़ी है सजल नयनों केअश्रुपूर्ण रोने धोने में?

निःशब्द मुस्कान सहित मौन खड़े हो, कुछ कहोगे?
अच्छा….कुछ नहीं कहना है, तो
कुछ सुनोगे? सुनोगे न…,तो सुनो।

सुना है औघड़ दानी हो,
सर्व शंकाओं से उपराम, सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी विज्ञानी हो।

याचक हूं एक भिक्षा का….!!!
भले ही हो अंशतः, किंतु मुझे केवल वो गुर सिखला दो,
कि कैसे तुम भवसागर मंथन के
सर्वथा त्यक्त विष का विषपान स्वीकार कर, हलाहल को
कंठो के ऊपर ही रोककर,
मौन मुस्कानों में मस्त, अलमस्त, परमशान्ति समेटे मुस्कराते रहते हो, हे मेरे नीलकंठ?
😭😭😭

विनम्र शुभेक्षाओं सहित।
~ मृत्युञ्जयानन्द ।©
🙇🙇🙇🙇🙇

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हृदय से करबद्ध प्रार्थना………!!!!

सम्पूर्ण विश्व को भयंकर त्रासदियों के आक्रमण से मुक्त कराने के लिए
भगवद गीता के अध्याय 11 के श्लोकों के माध्यम से परमात्मा को मेरी हृदय से करबद्ध प्रार्थना ।
मैं पूरे विश्व के निवासियों को इस पुण्यमयी यात्रा में मेरा साथ देने के लिए प्रार्थना करता हूँ।
प्रतिदिन के प्रति छण में इस प्रार्थना को परमपिता परमात्मा को समर्पित करें।
**************
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः
प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः
पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं
सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥

आप ही वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चंद्रमा, तथा प्रजा के स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं। आपको हज़ारों बार नमस्कार है। फिर भी बार बार नमस्कार है।
हे अत्यंत सामर्थ्य वाले! आपको आगे से और पीछे से भी नमस्कार हो; क्योंकि हे अत्यन्त पराक्रमशाली ! आप सब ओर से संसार को व्याप्त किये हुए हैं, इसलिए आप ही सर्वरूप और सवर्त्र हैं।
🙇🙇🙇🙇🙇

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं
प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः
प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्॥

आप चराचर के पिता हैं, इसलिए मैं अपने शरीर को भली प्रकार आपके चरणों में रखकर, प्रणाम करके, स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिए प्रार्थना करता हूँ। है देव ! पिता जैसे पुत्र के, सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रिय स्त्री के अपराधों को क्षमा करता है,
वैसे ही आप भी मेरे अपराधों को सहन करने योग्य हैं।
🙇🙇🙇🙇🙇

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देव रूपं
प्रसीद देवेश जगन्निवास॥

पहले न देखे हुए आप के इस रूप को देखकर मैं हर्षित हो रहा हूँ।
मेरा मन भय से व्याकुल हो रहा है। अतः है देव ! आप प्रसन्न हों।
हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप अपने उस रूप को ही मुझे दिखाइये।
🙇🙇🙇🙇🙇

किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तं
इच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन
सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते॥

मै आपको वैसे ही अर्थात पहले की ही तरह शिर पर मुकुट धारण किये हुए,
हाथ में गदा और चक्र लिए हुए देखना चाहता हूँ।
इसलिए हे विश्वरूपे ! हे सहस्त्रबाहो ! आप अपने उसी चतुर्भुज स्वरूप में होइए।
🙇🙇🙇🙇🙇
~ श्रीमद्भगवद्गीता ~
साभार,
स्वामी अड़गड़ानंद जी कृत “यथार्थ गीता” ।

विनम्र शुभकामनाओं सहित,

~मृत्युञ्जयानन्द~
🙇🙇🙇🙇🙇🙇🙇🙇🙇🙇🙇
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समाधियाँ…,!!!!

ॐ श्री सदगुरुदेव भगवान की जय।।
***************************
अन्तराय विघ्नो से बचने के लिए अनेक उपाय बताये गए हैं जैसे- अभ्यास मे नाम या रूप मे से किसी भी एक मे जिसमे मन अधिक लगता हो, उसी मे अधिक देर तक अभ्यास बढाये। सुखी व्यक्तियो के प्रति मैत्री भाव, सुख एक ही है- हरि की भक्ति! हरि भक्तो की संगति से जो भी उपलब्धि होगी, वह साधना परायण ही होगी। दुःखी अर्थात संसारी व्यक्ति बुरा नही होता, उसकी परिस्थिति ही ऐसी है, आप उनसे कुछ (दुर्गुण) ग्रहण न करे। श्वास को बाहर निकाले। जितना सम्भव हो उसे बाहर रोके। बार- बार श्वास बाहर निकाले और रोके। चार- छः बार भी ऐसा करने से दूषित वायु मण्डल बाहर हो जाता है।

हमारा विषय है- ईश्वर- प्रणिधान, नाम- रूप का सतत् चिन्तन- इन विषयो मे लव लग जाय, चिन्तन का स्तर उन्नत हो जाने पर, ईश्वरीय सहयोग मिलने लगता है, उस ज्योति स्वरूप द्रष्टा का दर्शन होने पर, मन की तरंगे शान्त हो जाती है। यह दर्शन विघ्नो का शमन कर, मन को स्थिर करने मे सहायक होता है। निद्राकाल मे स्वप्न मे भी साधना की पकड़, क्लिष्ट और अक्लिष्ट वृत्ति का विकास कैसा है- उसे देखते रहना। निद्रा काल मे जो दृश्य मिलता है भगवान से प्रसारित होता है, सदगुरु से मिलता है। उसका अनुसरण करने वाला चित्त, स्थिरता की ओर अग्रसर होता जाता है। वातावरण को साधना के अनुरूप ढाल लेना, आशय को बदल कर, साधना के अनुकूल ढाल लेना, यथाभिमत ध्यान है। इस प्रकार साधना और ध्यान करते करते, योगी का मन परमाणु से लेकर, परम महत्त्व के विषय पर, एकाग्रता का अधिकार प्राप्त कर लेता है। उस समय अत्यन्त सूक्ष्म परमाणु से लेकर, बड़ी से बड़ी जिस किसी वस्तु मे एक बार सुरत स्थिर हो गई, चित्त वहा स्थिर रहे, और हमे शरीर का भी भान न रहे। यह योगी के जीते हुए चित्त की विशेषता है। यही समाधि है। इस समाधि के कैई स्तर है, जिसे बाह्य मुखी और अन्तर मुखी भी कहते है। बाह्य मुखी के भी कैई स्तर है तथा अन्तर मुखी के भी कैई स्तर होते है। इन्ही को यहा महर्षि पतंजलि सूत्र 1/41 मे कहते है-

क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहण-
ग्राह्येषु तत्स्थतदञ्जनता समापत्ति:।
(योगदर्शन, 1/41)

जिसकी क्लिष्ट, अक्लिष्ट समस्त वृत्तिया क्षीण हो गयी है, उसका चित्त ग्रहीता अर्थात साधक पुरुष, ग्रहण अर्थात अन्तः करण की दृष्टि सुरत और ग्राह्य ईश्वर एवं उसका नाम इत्यादि मे उसी प्रकार तदाकार (तद्रूप) हो जाता है, जैसे उत्तम जाति की विशुद्ध स्फटिक मणि जिस वस्तु के समक्ष होती है वैसा ही रंग धारण कर लेती है। ग्रहीता, ग्रहण और ग्राह्य का बोध सम्प्रज्ञात समाधि है, जिसमे साधक को अपना एवं अपनी स्थिति का भान रहता है कि मै कहाँ हूँ? कैसा हूँ? अब
समाधि के अगले चरण पर महर्षि 1/42 मे प्रकाश डालते है-
तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः
संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः।
(योगदर्शन, 1/42)

‘समापत्तिः’ अर्थात सम्प्रज्ञात समाधियो मे भी शब्द, अर्थ और ज्ञान इन तीनो के विकल्पो से संकीर्ण अर्थात मिश्रित चित्त का समाधान सवितर्क समाधि है।
संसार मे तरह तरह के शब्द लोग सुनते ही रहते है, उसका अर्थ लगाते है, वस्तुओ का ज्ञान भी प्राप्त करते है; किन्तु उससे किसी की समाधि लगती दिखायी नही देती। वस्तुतः द्रष्टा और दृष्य के संयोग से भगवान जो प्रेरणा देते है उसी का नाम शब्द है। संत कबीर कहते है-

शब्दै मारा गिर पड़ा,
शब्द छुड़ाया राज
जिन जिन शब्द विवेकिया,
तिन्ह के सर गयो काज।।

जब शब्द पकड़ में आया, साधक गिर पड़ा, समर्पित हो गया। ‘मैं ज्ञानी हूँ, ध्यानी हूँ’- ऐसा अहं खो गया। शब्द में इतना बल है कि कोई राज्य- सुख तिनके की तरह त्याग कर अलग हो गया और जिन- जिन ने शब्द पर विवेक किया ‘तिन्हके सर गयो काज’- उनके कार्य की सिद्धि हो गयी, बेड़ा पार हो गया।
‘शब्द बिना श्रुति आँधरी’ कोई चिन्तन में मन लगाता है, सुरत में स्वरूप पकड़ता है किन्तु उसके साथ निरीक्षक- परीक्षक के रूप में शब्द नहीं मिलता, भगवान निर्णय नहीं देते तो सुरत भी अन्धी है।

शब्द बिना श्रुति आँधरि,
कहो कहाँ लौं जाये।
द्वार न पाये शब्द का,
फिर- फिर भटका खाय।।
(कबीर वाणी)

यदि शब्द का स्रोत नही मिला तो सुरत लगाने और योग साधने से कोई लाभ नही, जाने कहा ले जाकर पटक दे। ये शब्द है भगवान के। द्रष्टा स्वयं जो दृश्य प्रसारित करते है, जिसका प्रयोजन पुरुष के लिये साधनोपयोगी भोग तथा मोक्ष प्रदान करना है। वे द्रष्टा जैसा जैसा दृश्य प्रस्तुत करते है, उसका नाम है शब्द। चित्त शान्त प्रवाहित है, ऐसे मे कैसा शब्द सुनायी दिखायी पड़ा उसका अर्थ और उसकी जानकारी- इन तीनो के विकल्पो से संकीर्ण (मिली हुई) चित्त की समाधि सवितर्क है। यहा परमात्मा तो नही है, केवल सम्प्रज्ञात समाधि है किन्तु परमात्मा का विकल्प भली प्रकार पुष्ट है। कबीर कहते हैं- ‘शब्द सो प्रीति करे सो पावे।’ इससे उन्नत समाधि की अवस्था निर्वितर्क है, जिस पर महर्षि 1/43 मे प्रकाश डालते है-

स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्ये-
वार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का।
(योगदर्शन, 1/43)

जब चित्त का निज स्वरूप शून्य हो जाता है, केवल लक्ष्य मात्र का ही आभास रह जाता है, उस समय ‘स्मृतिपरिशुद्धौ’- स्मृति भली प्रकार शुद्ध हो जाती है, तब वह निर्वितर्क समाधि है। न शब्द है, न अर्थ है, न ज्ञान है, चित्त का स्वरूप ही शून्य हो गया, कौन शब्द सुने तथा कौन ज्ञान रखे, लक्ष्य का आभास मात्र है उस समय स्मृति विशेष रूप से शुद्ध है, यह निर्वितर्क समाधि की अवस्था है; क्योकि स्मृति और संस्कार का एक ही स्वरूप होता है। अब स्मृति- पटल पर कोई संस्कार अंकुरित नही होगा। कैवल्यपाद के नवम सूत्र में महर्षि बताते हैं कि जाति अर्थात जन्म- परिवर्तन, देश और काल के लम्बे अन्तराल से भी संस्कारो में परिवर्तन या विराम नहीं होता। वे ठीक समय पर प्रकट होते हैं; किन्तु यहा वे संस्कार निर्मूल हो गये फिर भी संस्कारो का बीज अभी बना हुआ है; क्योकि चित्त अभी जीवित है। इससे उन्नत अवस्था पर महर्षि 1/44 मे प्रकाश डालते है-

एतयैव सविचारा निर्विचारा
च सूक्ष्मविषया व्याख्याता।
(योगदर्शन, 1/44)

‘एतया एव’- इस से (पूर्वोक्त सवितर्क और निर्वितर्क के वर्णन से) सविचार और निर्विचार समाधि का तथा ‘सूक्ष्मविषया’- साधना की सूक्ष्म अवस्था का भी वर्णन कर दिया गया है। अब आगे 1/45 मे देखे इन समाधियो का परिणाम-

सूक्ष्मविषयत्वं चालिङ्गपर्यवसानम्।
(योगदर्शन, 1/45)

साधना की इन अति सूक्ष्म अवस्था मे ‘अलिङ्गपर्यवसानम्’- प्रकृति की अति सूक्ष्म परतो, मूल प्रकृति पर्यन्त भली प्रकार वशीकार हो जाता है। अब प्रकृति भी उसे उद्वेलित नही कर सकती। महर्षि 1/46 मे कहते है-

ता एव सबीजः समाधिः।
(योगदर्शन, 1/46)

उपर्युक्त सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार, निर्विचार समाधिया निर्विकल्प होने पर भी निर्बीज नही है। चित्त का बीज विद्यमान है इसलिए ये सब की सब सबीज समाधि ही है। इन चार प्रकार की समाधियो मे भी निर्विचार समाधि के निर्मल हो जाने पर- महर्षि 1/47 मे कहते है-

निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः।
(योगदर्शन, 1/47)

निर्विचार समाधि अत्यन्त निर्मल होने पर योगी मे ‘अध्यात्मप्रसादः’- आत्मिक विभूतिया भली प्रकार प्रसारित हो जाती है। सनातन पुरुष अजन्मा, शाश्वत जिन विभूतियो वाला है, वे सारी विभूतिया योगी को प्राप्त हो जाती है। आत्मा का आधिपत्य स्थापित हो जाता है। आत्मिक विभूतियों का सारा प्रसाद उसे प्राप्त हो जाता है। अब कोई विभूति उससे अलग नही है। उस समय योगी की बुद्धि ऋतम्भरा होती है। महर्षि ऋतम्भरा बुद्धि पर 1/48 मे कहते है-

ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा।
(योगदर्शन, 1/4)

उस समय योगी की प्रज्ञा (बुद्धि) ऋतम्भरा अर्थात सत्य से संयुक्त हो जाती है। अब वह परमतत्त्व परमात्मा को धारण करने की क्षमता वाली हो जाती है। जब अध्यात्म का प्रसाद मिल गया तो अब केवल परम चेतन को पाना मात्र शेष रह गया। यह बुद्धि साधारण बुद्धियो से अलग है। इस पर महर्षि 1/49 मे कहते है-

श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात्।
(योगदर्शन, 1/49)

श्रुत अर्थात श्रवण किये हुए और अनुमान से होने वाली बुद्धि की अपेक्षा इस ऋतम्भरा प्रज्ञा का विषय भिन्न है। जिसका ज्ञान श्रुत और अनुमान से नही होता उसकी जानकारी इस प्रज्ञा से होती है; क्योकि यह विशेष अर्थवाली है। विशेष पुरुष ईश्वर है, उस अर्थ वाली है, उसको ग्रहण करने की क्षमता वाली है, इसलिए श्रवण और अनुमान से जो बुद्धि तैयार होती है उसकी अपेक्षा यह बुद्धि अत्यन्त परिमार्जित है। इस बुद्धि का विषय भिन्न है; क्योकि यह केवल प्रकृति से परे आत्मा (द्रष्टा) को धारण करने की क्षमता वाली है।

‘श्रुत’- केवल सुनने से कोई बुद्धि तैयार नही होती। श्रवणेन्द्रिय मे कोई ध्वनि टकराते ही स्पर्श, रूप, रस इत्यादि प्रत्येक के अभ्यास तथा अन्य जन्मो के संस्कार स्मृति- पटल पर उभरते ही अनुमान का सूत्र पात होने लगता है, वस्तुओ की जानकारी हो जाती है; किन्तु यह प्रज्ञा विशेष अर्थ वाली है।
श्रुति या सुरत मन की दृष्टि है। यह भला- बुरा सब कुछ ग्रहण करती है। सुरति मे स्फुरण के साथ ही अनुमान होने लगता है; किन्तु इस ऋतम्भरा प्रज्ञा का स्तर उससे उन्नत है। यह ‘पुरुष विशेष ईश्वरः’ को धारण करने की क्षमता वाली होती है। इसके महत्त्व पर महर्षि 1/50 मे पुनः प्रकाश डालते है-

तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी।
(योगदर्शन, 1/50)

इस ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कार अन्य समस्त संस्कारो का प्रतिबन्धक होता है, उन सब का निरोध कर देता है। इसके पश्चात प्रकृति बाधक नही रह जाती। अब कोई संस्कार प्राप्ति मे बाधक नही होता। महर्षि 1/51 मे कहते है-

तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः।
(योगदर्शन, 1/51)

ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कार भी जब शान्त हो जाता है, उस समय सर्व निरोध के साथ निर्बीज समाधि हो जाती है। ऋतम्भरा प्रज्ञा के प्रभाव से जब अन्य समस्त संस्कारो का अभाव हो जाता है, उससे उत्पन्न संस्कार ईश्वर को धारण करने की क्षमता वाला हो जाता है, वह ईश्वर मिलकर इस संस्कार को भी शान्त कर देता है- इस प्रकार संस्कारो के बीज का सर्वथा अभाव हो जाने से इस अवस्था का नाम निर्बीज समाधि है। इसी को कैवल्य पद, कैवल्य समाधि भी कहते है।

निष्कर्ष – महर्षि पतञ्जलि कहते है, कि जिसकी क्लिष्ट, अक्लिष्ट समस्त वृत्तिया क्षीण हो गयी है उसका चित्त ग्रहीता (साधक, पुरुष), ग्रहण (अन्तः करण की दृष्टि, सुरत) और ग्राह्य (ईश्वर एवं उसका नाम इत्यादि मे) उसी प्रकार तदाकार तद्रूप हो जाता है, जैसे उत्तम जाति की विशुद्ध स्फटिक मणि, जिस वस्तु के समक्ष होती है, वैसा ही रंग धारण कर लेती है। ग्रहीता, ग्रहण और ग्राह्य का बोध सम्प्रज्ञात समाधि है, जिसमे साधक को अपना एवं अपनी स्थिति का भान रहता है। सम्प्रज्ञात समाधियो मे भी शब्द, अर्थ और ज्ञान इन तीनो के विकल्पो से मिश्रित चित्त का समाधान, सवितर्क समाधि है। संसार मे तरह तरह के शब्द लोग सुनते ही रहते है, उसका अर्थ लगाते है। वस्तुतः द्रष्टा और दृष्य के संयोग से, भगवान जो प्रेरणा देते है, उसी का नाम शब्द है। जब चित्त का निज स्वरूप शून्य हो जाता है, केवल लक्ष्य मात्र का ही आभास रह जाता है, उस समय स्मृति भली प्रकार शुद्ध हो जाती है, तब वह निर्वितर्क समाधि है। न शब्द है, न अर्थ है, न ज्ञान है, चित्त का स्वरूप शून्य हो गया, कौन शब्द सुने तथा कौन ज्ञान रखे, लक्ष्य का आभास मात्र है। उस समय स्मृति विशेष रूप से शुद्ध है, यह निर्वितर्क समाधि की अवस्था है, क्योकि स्मृति और संस्कार का एक ही स्वरूप होता है। अब स्मृति पटल पर कोई संस्कार अंकुरित नही होगा। यहा वह संस्कार निर्मूल हो गये, फिर भी संस्कारो का बीज अभी बना हुआ है, क्योकि चित्त अभी जीवित है। इस से सविचार और निर्विचार समाधि का तथा साधना की सूक्ष्म अवस्था का भी वर्णन कर दिया गया है। साधना की इन अति सूक्ष्म अवस्था मे, प्रकृति की अति सूक्ष्म परतो, मूल प्रकृति पर्यन्त, भली प्रकार वशीकार हो जाता है। अब प्रकृति भी उसे उद्वेलित नही कर सकती। उपर्युक्त सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार, निर्विचार समाधिया निर्विकल्प होने पर भी, निर्बीज नही है। चित्त का बीज विद्यमान है, इसलिए ये सब की सब सबीज समाधि ही है। इन चार प्रकार की समाधियो मे भी, निर्विचार समाधि के निर्मल हो जाने पर। योगी मे आत्मिक विभूतिया, भली प्रकार प्रसारित हो जाती है। सनातन पुरुष अजन्मा, शाश्वत जिन विभूतियो वाला है, वे सारी विभूतिया योगी को प्राप्त हो जाती है। आत्मा का आधिपत्य स्थापित हो जाता है। अब कोई विभूति उससे अलग नही है। उस समय योगी की प्रज्ञा (बुद्धि) ऋतम्भरा अर्थात सत्य से संयुक्त हो जाती है।

अब वह परमतत्त्व परमात्मा को, धारण करने की क्षमता वाली हो जाती है। जब अध्यात्म का प्रसाद मिल गया, तो अब केवल परम चेतन को, पाना मात्र शेष रह गया। यह बुद्धि साधारण बुद्धियो से अलग है। श्रवण किये हुए और अनुमान से होने वाली बुद्धि की अपेक्षा, इस ऋतम्भरा प्रज्ञा का विषय भिन्न है। जिसका ज्ञान श्रुत और अनुमान से नही होता, उसकी जानकारी इस प्रज्ञा से होती है। क्योकि यह विशेष अर्थवाली है। विशेष पुरुष ईश्वर है, उस अर्थ वाली है, उसको ग्रहण करने की क्षमता वाली है, इसलिए श्रवण और अनुमान से जो बुद्धि तैयार होती है, उसकी अपेक्षा यह बुद्धि अत्यन्त परिमार्जित है। इस बुद्धि का विषय भिन्न है, क्योकि यह केवल प्रकृति से परे, आत्मा को धारण करने की, क्षमता वाली है। इस ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कार, अन्य समस्त संस्कारो का प्रतिबन्धक होता है, उन सब का निरोध कर देता है। इसके पश्चात प्रकृति बाधक नही रह जाती। अब कोई संस्कार प्राप्ति मे बाधक नही होता।

ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कार भी, जब शान्त हो जाता है, उस समय सर्व निरोध के साथ, निर्बीज समाधि हो जाती है। ऋतम्भरा प्रज्ञा के प्रभाव से, जब अन्य समस्त संस्कारो का, अभाव हो जाता है। उससे उत्पन्न संस्कार, ईश्वर को धारण करने की क्षमता वाला हो जाता है। वह ईश्वर मिल कर, इस संस्कार को भी शान्त कर देता है। इस प्रकार संस्कारो के बीज का, सर्वथा अभाव हो जाने से, इस अवस्था का नाम, निर्बीज समाधि है।
इसी को कैवल्य पद, कैवल्य समाधि भी कहते है। प्रश्न पूरा हुआ।

~स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी।©

विनम्र शुभकामनाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
🙇🙇🙇🙇🙇



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साधना की पूर्ति के लिए उत्तरोत्तर आसक्ति का त्याग ही त्याग है, कृपया उत्तरोत्तर आसक्ति को समझाइए………!!!!।

एक भाविक द्वारा साधनात्मक प्रश्न।

एक गृहस्थ के लिए अत्यंत भावनात्मक प्रश्न जिसकी स्पष्ट साधनात्मक व्याख्या उसके आध्यात्मिक जीवन के प्रारम्भ के लिए प्रेरणाश्रोत बन सकती है। इसके पहले की हम इस पर विचार प्रारम्भ करें, मैं पूज्य गुरुदेव की पूरी वाणी को सामने रखना चाहता हूं जिससे भ्रम की कोई स्थिति उत्त्पन्न न हो। पूज्यवर ने व्यक्त किया है:

“पूर्ण त्याग सन्यास है, जहां संकल्प और संस्कारों का भी समापन है और इससे पहले साधना की पूर्ति के लिए उत्तरोत्तर आसक्ति का त्याग ही त्याग है।”

अर्थात साधना की पूर्ति के लिए उत्तरोत्तर आसक्ति का त्याग ही त्याग है किंतु पूर्ण त्याग नहीं है। सर्वस्य का न्यास ही पूर्ण त्याग है जहां संकल्प और संस्कारों के समापन के साथ ही पूर्ण सन्यास है। हमें त्याग और सन्यास का स्पष्ट भेद अवश्य मालूम होना चाहिए ताकि पूर्ण सन्यास के प्रति न कोई भय हो, न ही भेद हो, न भ्रम हो।

अब मूल प्रश्न पर विचार करते हैं। पहले आसक्ति है क्या? मोह और आसक्ति अलग अलग विकार है या एक ही है? क्या हम कभी उस पर विचार करते हैं यद्यपि हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बनकर यह सदैव जीवंत रहता है।

भगवद गीता के अध्याय एक में अनेक योद्धाओं का वर्णन है। उनमे दुर्योधन(मोह), के अतिरिक्त दो और योद्धाओं का भी संदर्भ है। द्रोण(द्वैत का आचरण) और अश्वथामा(आसक्ति)। सभी कौरव पक्ष के योद्धा हैं। दोनों विजातीय पक्ष के आसुरी सम्पद की श्रेणी में आते हैं। सृष्टि में कहीं भी वस्तुओं में ऐसा लगाव जो चित्त से इतना चिपक जाय कि अलग करना असंभव हो जाय, आसक्ति है। मुझे अंग्रेज़ी में गीता अनुवाद करते समय अत्यंत कठिनाई हुई थी। आसक्ति को अंग्रेज़ी में कैसे व्यक्त करें, इस समस्या का समाधान मेरे एक अमेरिकन मित्र ने, जिसकी आवाज़ में मैंने गीता का अंग्रेज़ी ऑडियो रिकॉर्ड किया है, बहुत विचार करने के बाद बताया। उसने FIXATION शब्द बताया। चिपक गया तो चिपक गया। समाप्त नहीं होगा। मोह तो आगे पीछे कम या अधिक होता रहता है किंतु आसक्ति से मुक्त होना अत्यंत कठिन है।

अश्वत्थामा को श्रीकृष्ण ने उसके कुकृत्य के लिए श्राप दिया था। उत्तरा के गर्भ पर उसने मना करने पर भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया था। योगेश्वर ने यही श्राप दिया था कि तुम्हारे शरीर से आजीवन खून, पीब, मवाद रिसता रहेगा और तूं कभी मृत्यु को भी नहीं प्राप्त होगा। महाभारत के युद्ध के पूर्णतया अंत होने में बाद भी अश्वथामा रणभूमि में अनगिनत शवों के बीच अपने शरीर को जमीन से घिसटता, विलखता, रोता हुआ पाया गया था। ये है अश्वथामा का चरित्र जिसका जन्मदाता द्रोणाचार्य है जो द्वैत का आचरण है। द्वैत ही आसक्ति का जन्मदाता है। परमात्मा से अलग होने की जानकारी ही द्वैत का भान है। परमात्मा से दूरी ही आसक्ति को आमंत्रित करती है। द्रोण का अश्वथामा के प्रति आसक्ति ही उनके मृत्यु का कारण बना यद्वपि वे स्वयं कुशल योद्धा थे। अतः साधना की पूर्ति (महाभारत के गौरवशाली अंत के लिए जो अन्तःकरणचल में चल रहा है) के लिए उत्तरोत्तर आसक्ति का त्याग ही त्याग है और अनिवार्य है।

अब प्रश्न है उत्तरोत्तर त्याग। उत्तरोत्तर का अर्थ है धीरे धीरे (gradually) क्योंकि इस दुर्धष योद्धा का अंत तत्काल प्रभाव या पराक्रम से नहीं हो सकता। हम तत्काल आसक्ति से मुक्त नहीं हो सकते और मुक्त होना भी है अन्यथा जीवन मरण का बंधन समाप्त नहीं होगा। “पुनरपि जन्मम पुनरपि मरणम” इसका क्रम चलता रहेगा।

पूज्य कबीरदास जी ने कहा है:

“धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।”

गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि अनेक जन्म की संसिद्धि में तू मुझे प्राप्त कर सकेगा। स्वयम ईश्वर भी जानते हैं कि हम किस दुरूह परस्थितियों में फंस गए हैं और इसीलिए हमारे शिथिल प्रयत्न को भी सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। परमात्मा सिर्फ इतना ही देखता है कि हमारी अनवरत चेष्टा उस तक पहुंचने की है या नहीं या हम माया से लिपट कर अपना लक्ष्य पूर्णतया भूल चुके हैं।

आदि शंकराचार्य जी का “शिवोहम शिवोहम” का उदघोष आत्मस्थित के प्राप्ति के पश्चात का था और उसके लिए उनकी कठोर तपश्चर्या हमारे लिए मार्गदर्शक है। उतना ही करना पड़ेगा, इसमें कोई भी रियायत या शॉर्टकट नहीं होता। बिना उसके “शिवोहम” का उदघोष नारा लगाने जैसा है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। सभी महापुरुषों ने इतना ही किया है। मीरा, तुलसी, कबीर, रामकृष्ण परमहंस इत्यादि अनेको ने भक्ति की उस सीमा का स्पर्श किया जहां भौतिक जगत की कोई भी शक्ति भले माया का प्रबल प्रहार ही क्यों न हो, उन्हें परमात्मा से किसी कीमत पर विभक्त नहीं कर सकी। यही भक्ति की सही परिभाषा है। किंतु धीरे धीरे। लंबी यात्रा है, बहुत धैर्य की आवश्यकता होती है। जिनके साथ संस्कार बंधे हैं, उनके साथ लिए गए संकल्पों का बोझ धीरे धीरे कटता है यदि क्षमता के अनुकूल साधना की पूर्ति होती रहे।

रामचरित मानस का गायन है:

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।।
जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवे सभय सरन तकि मोही।।
तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना।।
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं।।
अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें।।
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें।।

साधना इतनी कठिन होती है। इसीलिए गुरु की आवश्यकता होती है। कमर्शियल गुरु नहीं अपितु पूर्ण महापुरुष। पूर्ण महापुरुष पुण्य पुंज के संचय और ईश्वर के अनवरत प्रार्थना से ही प्राप्त होते हैं। साधना का मार्ग वही अपने निर्देशन में प्रशस्त करते रहते हैं। साधना की पूर्ति होती रहती है और साधना के परिणामस्वरूप स्वतः जो जुड़ना होता है जुड़ जाता है और जिसका त्याग करना होता है उत्तरोत्तर त्याग हो जाता है। अपने प्रयास से कुछ करना अत्यंत कठिन है। ज्ञान मार्ग से चलने वाले स्वयं प्रयास करते हैं लेकिन अत्यंत कठिन है। भक्ति मार्ग से चलकर मार्ग आसान ही जाता है।
स्वतः न कुछ जोड़ना होता है ना ही त्यागना। सब महापुरुष के सत्संग से, उनकी कृपा से, विमल विभूति से और प्रभाव से संभव हो जाता है।

भक्त सूरदास ने अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है। उद्धव, गोपियों को समझाने गए थे जो कृष्ण के विरह में व्याकुल थीं। गोपियों ने कहा:

उधो, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।
स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।
सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस॥

सद्गुरु की कृपा से जब मन परमात्मा में रमने लगता है तो संसार के अन्य विषय उत्तरोत्तर अरुचिकर लगने लगते हैं। मन तो एक ही है। जैसे जैसे परमात्मा की ओर आकृष्ट होता जाएगा, साधना की पूर्ति होती जाएगी और उत्तरोत्तर आसक्ति का स्वतः त्याग होता जाएगा। आसक्ति ही नहीं अपितु सारे मन के विकार अपने आप ही साधना के मार्ग से अलग थलग होते जाते हैं। प्रभु स्वयं ही लीला रच देते हैं और भक्त की साधना गति पकड़ने लगती है। पूज्य गुरुदेव ने इसलिए ऐसा बताया है कि अक्सर सफल भक्त भी माया के असह्य दवाब में भटक जाता है और नष्ट हो जाता है। इसलिए प्रभु प्रेरणा से जिसका त्याग हो जाय उसका हृदय में पुनः प्रवेश न होने पाए। उसका सर्वथा त्याग हो जाय।

इसके लिए अनावश्यक दबाव या हठ हानिकारक होता है। मरकट
वैरागी सदा असफल रहता है जो आज के परिवेश में दिख रहा है।

यह गंभीर विषय है। इस पर तो पुस्तक लिखी जा सकती है। लेकिन संछिप्त जानकारी के लिए इस लेख से सहायता मिल सकती है।

इस सूक्ष्म आध्यात्मिक ज्ञान के लिए पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में सादर नमन।

हरि ओम।


विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
🙇

 

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अन्तःकरण की वृत्ति के अनुरूप तप का क्या मतलब है……….?

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प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण और हृदयस्पर्शी है।
पहले हमें ये पता होना चाहिए की तप की आवश्यकता क्या है?
तप से लाभ क्या है?

एक भाविक का भावपूर्ण प्रश्न।

योगेश्वर कृष्ण के अनुसार राग और विराग, दोनों से परे वीतराग तथा इसी प्रकार भय अभय, क्रोध अक्रोध दोनों से परे, अनन्य भाव से अर्थात अहंकाररहित मेरी शरण हुए बहुत से लोग ज्ञान तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त होते हैं। श्वास प्रश्वास के यज्ञ और तप का भोक्ता मैं हूं। पृथ्वी में पवित्र गंध और अग्नि में तेज हूँ। सम्पूर्ण जीवों में जीवन हूं और तपस्वियों में उनका तप हूं। लक्ष्य के अनुरूप अपने को तपाना दैवी सम्पद के लक्षण हैं। परमात्मा ही सर्वत्र है, इस भाव से फल को न चाहकर शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट नाना प्रकार के यज्ञ, तप और दान की क्रियाएं परम कल्याण की इच्छा करने वालों द्वारा की जाती हैं। यज्ञ, तप और दान को करने में जो स्थिति मिलती है, वह भी सत है। किंतु बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप, और जो भी किया हुआ कर्म है, वह सब असत है। यज्ञ, दान और तप त्यागने योग्य नहीं है क्योंकि तीनो ही पवित्र करने वाले हैं।

सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके चित्त के वृत्तियों के अनुरूप होती हैं।
मनुष्य श्रद्धामय है।
इसलिए जो मनुष्य जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयम भी वही है।
जैसी श्रद्धा वैसी वृत्ति वाला मनुष्य।

चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना ही योग है। तप के द्वारा इन वृत्तियों को रोकने में सहायता मिलती है।
उस समय वह जीवात्मा अपने ही शाश्वत स्वरुप में स्थित हो जाता है।
अन्यथा जैसा अंतःकरण के वृत्ति का रुप है, वैसा ही वह स्वयं है।
जैसी वृत्ति वैसा मनुष्य।
अतः अन्तःकरण की वृत्ति तप के प्रकार के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

महापुरूषों के अनुसार स्थूल शरीर द्वारा किये गए तप से स्थूल शरीर द्वारा सम्पन्न किये गए पाप और सूक्ष्म शरीर के तप से सूक्ष्म शरीर के द्वारा हुए पाप का शमन हो जाता है।

अन्तःकरण की वृत्तियां अनन्त है। तप के प्रकार का निर्धारण मनुष्य के अन्तःकरण की वृत्तियां ही करती हैं।

परमदेव परमात्मा, द्वैत पर जय प्राप्त करने वाले द्विज, सद्गुरु और ज्ञानी जनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, तथा अहिंसा शरीर संबंधी तप कहा जाता है। शरीर सदैव वासनाओं की तरफ की ओर दौड़ता है, इसलिए अन्तःकरण के उपर्युक्त वृत्तियों के अनुरूप तपाना शारीरिक तप है।

उद्वेग न पैदा करने वाला, प्रिय, हितकारक और सत्य वचन तथा परमात्मा में प्रवेश दिलाने वाले शास्त्रों के चिंतन का अभ्यास, नाम जप, ये वाणी का तप है। अनर्गल वाणी को समेट कर परमात्मा के दिशा में लगा देना वाणी संबंधी तप है।

मन की प्रसन्नता, सौम्यभाव, मौन अर्थात अन्य विषयों का स्मरण भी न ही, मन का निरोध, अन्तःकरण की सर्वथा पवित्रता- यह मन संबन्धी तप है। शरीर, वाणी और मन का तप मिलाकर एक सात्विक तप है।

जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए अथवा केवल पाखंड से ही किया जाता है,
वह अनिश्चित एवम चंचल फल वाला तप राजस तप कहलाता है।

जो तप मुर्खतापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर के पीड़ा सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए बदले की भावना से किया जाता है, वह तप तामस तप कहा जाता है।

उपरोक्त वर्णित मानवीय गुणों अथवा दुर्गुणों के पृष्ठभूमि में मुख्य भूमिका
उसके अन्तःकरण में छिपी वृत्तियों का ही है
जो उसके स्वभाव का निर्धारण करती हैं।

अतःजैसी श्रद्धा वाला मनुष्य, वैसा ही वह स्वयं और उसके अनुरूप उसके चित्त की वृत्तियां होती हैं जो अन्तःकरण का अभिन्न अंग बनकर हमारे क्रिया कलापों को प्रभावित करती रहती हैं। अन्तःकरण में छिपी वृत्तियों के अनुसार ही तप के प्रकार का निर्धारण होता है।

यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति अन्तःकरण को दूषित वृत्तियो की दासता से मुक्त कराए बिना
किसी भी कीमत पर दोषमुक्त तपस्वी नहीं बन सकता।

अन्तःकरण की वृत्ति के अनुरूप तप का यही अर्थ है।

इस सूक्ष्म आध्यात्मिक ज्ञान के लिए पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में सादर नमन।

हरि ओम।

विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
🙇

 

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“Metaphysical Interpretation of “Dharma” as per vision of truly enlightened sage, knower of the true essence / तत्वदर्शी की दृष्टि से “धर्म” की आध्यात्मिक व्याख्या..!!!

According to Lord Krishn (2/16-29),
the unreal never exists

and
the real is never without existence at any time.
God alone is real, permanent, indestructible, changeless, and eternal,
but he is beyond thought, imperceptible, and quite above the flutterings of mind.
Now the point is how to restrain the mind?
Action is the name of the mode by which a man attains to God after subduing his mind.
Putting this mode into practice is Dharm, which is a trust or obligation.
As Lord Krishn has told Arjun in the fortieth verse of Chapter 2 :

“Since selfless action neither wears out the seed from which it sprang nor has any adverse consequence, even a partial observance of it liberates one from the dire terror of repeated birth and death.”

So the undertaking of this action is Dharm.

This appointed action has been classified into four categories
on

the basis of the seekers’ inherent ability.
At the initial stage, when a
man sets upon the way of seeking
after a due understanding of his
task, he is a Shudr.
But he is elevated to the rank of a Vaishy when his hold upon the means gets steadier.
At the third stage, the same worshiper is promoted to the yet higher status of a Kshatriy
when he gains the ability to oppose the conflicts of nature.
The awakening of true knowledge that is transmitted by the voice of God himself,
and which bestows on one, the ability to rely upon that God and become like him,
transmutes the seeker into a Brahmin.

Hence Yogeshwar Krishn lays down in the forty-sixth verse ofChapter 18
that
engaging in action that is in harmony with one’s native disposition is swadharm.
Though of an inferior merit, the discharge of one’s natural obligation should be preferred.
The undertaking of a deed of superior merit is,
on the other hand,
improper and injurious if it is attempted without cultivating the ability that is commensurate with it.

Even losing one’s life in the fulfilment of one’s inborn calling is better,
because the body is a mere garb and no one is really changed by putting on a different apparel.
When taken up again, the spiritual exercise is resumed from the same point at which it was discontinued. Thus climbing from step to step, the seeker at last attains to the immortal state.

The same is re-emphasized in the forty-seventh verse of the
concluding chapter, when it is said that a man attains to ultimate
liberation by worshiping God well according to his inborn inclination.
In other words, remembering and meditating on God by the appointed mode is Dharm.

But who is the man entitled to this spiritual discipline called Dharm?
Who has the privilege of approaching it?
Shedding light on the problem, Lord Krishn tells Arjun
that
even the most degraded man is rendered virtuous
if he worships him (Lord Krishn) – the one God-with intentness,
and his Soul is then merged with God who is the ultimate reality anddharm.
So, according to the Geeta,
that man is pious who performs the appointed task
in keeping with his innate property to realize God.

Arjun is counselled at last to forsake all his other obligations
and
seek refuge in Lord Krishn.
So that man who is wholly devoted to one God is endowed with piety.
To dedicate oneself thus to God is Dharm.

The process by which the Self is enabled to attain to the Supreme Being is dharm.

The awareness that comes to sages after their hunger for union with God has been quenched
because of their achievement of the ultimate state is the only reality in all of the creation.
So we have to seek refuge in these men of enlightenment and wisdom in order to learn how we can make our way along the path that leads to final bliss.
That path is only one and embarking on it is Dharm.

Dharm is an obligation-a sacred trust.
It is propitious and the
mind that applies itself to this enjoined task is also one and unified. (2.41)
Offering the functions of the senses and the operations of the life-winds to the fire
of
yog-self-restraint-kindled by the knowledge of God is Dharm. (4.27)

When self-control is identical with the Soul,
and the operations of breath and the senses are thoroughly stilled,
the current which arouses passions and the current that bears one towards God merge into one in the Self. Realization of God is the sublime culmination of this spiritual process.

~Revered Gurudev Swami Adgadanand Jee Paramhans.©

Humble Wishes.
~mrityunjayanand.
🙇🙇🙇🙇🙇.

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