राम नाम मणिदीप है…….!!!!!

रामनवमी आगमन-एक विशिष्ट आध्यात्मिक पुष्पांजली…!!!!
राम नाम मणिदीप है…….!!!!!
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कुसल कुसल कहत जग बिनसे ,कुसल काल की फाँसी ।
कह कबीर एक राम भजन बिनु , बाँधे जमपुर जासी ॥
वृद्धावस्था तक लोग भजन के लिए समय नहीं निकाल पाते । वे कहते हैं- गठिया – बतास आजकल कुछ ठीक है , स्वाँस भी नहीं फूल रही है , च्यवनप्राश मिल रहा है , वृद्धा पेंशन मिल रही है । कबीर कहते हैं- यह कुशल नहीं है , काल का फेंका फन्दा है । इसमें – उसमें मन लगाया कि ‘ राम नाम सत्य है ‘ ; पहुँचा दिये गये मणिकर्णिका घाट ! जहाँ समय पूरा हुआ , मनुष्य न एक श्वास अधिक ले पाता है और न ही एक ग्रास अधिक खा पाता है । तो भला कुशल कहाँ है ?
“कह कबीर एक राम भजन बिनु बाँधे जमपुर जासी।”
बरबस जकड़कर यमलोक पहुँचा दिये जाओगे ।
जब वृद्धावस्था की यह हालत है , जवानी तो अँधेरी रात है ; न जाने कहाँ ऊँचे – नीचे पैर पड़ जाय , व्यक्ति कहीं भी गिर सकता है । इससे बचने के लिए क्या करें ? कबीर उपाय बताते हैं
“शून्य महल में दीप जलाकर आसन से मत डोल री ।
तोहें पीव मिलेंगे ।”
शून्य महल ? भजन करते – करते जब चित्त संकल्प – विकल्प से रिक्त हो जाता है , अन्तःकरण में शान्ति छा जाती है , मन में सन्नाटा हो जाता है – यही शून्य महल है । उस समय अन्तःकरण में न शुभ और न ही अशुभ संकल्पोंका उदय होता है । जहाँ संकल्पों का आवरण हटा तो भक्ति का दीप निर्विघ्न जलने लगता है , प्रकाश मिलने लगता है-
“राम भगति मनि उर बस जाकें ।
दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें ॥” ( मानस , 7/119/9 )
विभक्ति माने अलगौझी ; भक्ति माने जुड़ना ।
सुरत भगवान से जुड़ जाती है , भक्तिरूपी मणि प्राप्त हो जाती है । इस भक्ति का उतार – चढ़ाव नाम पर है।
राम नाम मनिदीप धरु , जीह देहरी द्वार ।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ , जौं चाहसि उजिआर ॥ ( मानस , 1/21 )
रामनाम मणिदीप है । पहले पूर्वजों के पास मणियों के दीपक हुआ करते थे । प्रकाश के लिए मणि रख दिया । बत्ती ठीक करो , तेल भरो- ऐसा कुछ भी नहीं था । गरीबों का यह प्रयोग तो बहुत बाद में आया ।
गोस्वामीजी उसी मणि – दीप का रूपक रामनाम को देते हैं कि इस नामरूपी मणि को जीह की देहरी पर रख दो तो भीतर – बाहर दोनों ओर प्रकाश हो जायेगा । बाहर का मायिक अंधकार वहाँ स्पर्श नहीं कर पायेगा ; क्योंकि मणि से निरन्तर प्रकाश मिल रहा है ।
रामनाम में लव लगी है तो माया आयेगी कैसे !
रामनाम- भगवान का नाम तो सभी जपते हैं , हम भी , आप भी लेकिन यह मणि जिह्वा के द्वार पर टिकती ही नहीं । पाँच मिनट हम सब राम – राम कहते हैं लेकिन छठवें मिनट मन हवा से बातें करने लगता है , न जाने यह कहाँ चला जाता है । हम मणि को जिह्वा पर रखते हैं , वह टिकती ही नहीं । कारण यह है कि भीतर संकल्पों की भीड़ लगी हुई है । चिन्तन करते – करते चित्त जब संकल्प – विकल्प से शान्त हुआ , यह मणि स्थायित्व ले लेती है । मणि रखने का यह अर्थ नहीं है कि हम सब कुछ पा गये । यह ठीक है कि मायिक अन्धकार का अब प्रवेश नहीं होगा किन्तु मणि के प्रकाश में हमें इष्ट तक की दूरी तय करनी है इसलिए ‘ आसन से मत डोल री ‘ । आसन के सन्दर्भ में सन्त कबीर की साखी है
आसन मारे क्या हुआ , मिटी न मन आस ।
ज्यों कोल्हू के बैल को , घर ही कोस पचास ॥
~स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी परमहंस।©
विनम्र शुभकामनाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
                                                                           🙇🙇🙇🙇🙇
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