ब्रह्म आचरणमयी प्रवृत्ति ही वानरी सेना है……!!!!!

ब्रह्म आचरणमयी प्रवृत्ति ही वानरी सेना है……!!!!!
रामचरित मानस का आध्यात्मिक दृष्टिकोण।
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यह शरीर ही अवध है; क्योंकि इसमें अवध्य स्थिति का सूत्रपात् होता है। इसके अन्तराल में दसों इन्द्रियों की निरोधमयी प्रवृत्ति ही दशरथ है-
राम नाम सब कोई कहै, दशरथ कहै न कोय।
एक बार दशरथ कहै, कोटि यज्ञ फल होय।।
राम-नाम सभी कहते हैं, दशरथ कोई नहीं कहता। यदि एक बार कोई दशरथ कह दे तो करोड़ों यज्ञ का फल होता है। फल तो इतना बड़ा, फिर भी दशरथ-दशरथ कोई नहीं जपता। सब राम-राम ही जपते हैं। जपना भी चाहिए।
वस्तुतः दसों इन्द्रियों की निरोधमयी प्रवृत्ति ही दशरथ है। दसों इन्द्रियों को संयत करके ‘राम’ का उच्चारण ही तो शुद्ध जप है। निरोध के साथ जप में करोड़ो यज्ञों का फल निहित है, किन्तु इन्द्रियाँ विषयोन्मुख हैं और जिह्ना राम-राम रटती है तो उसका यथार्थ प्रभाव नहीं होता।
परमकल्याण तो नहीं ही होता; हाँ, पुण्य-पुरुषार्थ अवश्य बढ़ता है जो कल्याण करनेवाला होता है। अतः दसों इन्द्रियों की निरोधमयी प्रवृत्ति ही दशरथ है। पहले तो यह मन उधर ही दौड़ता है ‘जहँ जहँ इन्द्रिह ताने’; किन्तु जब दसों इन्द्रियों की लगाम रथी के हाथ आ जाती है तभी पुरुष दशरथ बन जाता है। इस प्रकार इसी शरीर के अन्तराल में दसों इन्द्रियों की निरोधमयी प्रवृत्ति दशरथ है।
इसी में भक्तिरूपी कौशल्या है। आत्मिक सम्पत्ति ही स्थिर सम्पत्ति है। इसके कोश में लव अर्थात् लगन दिलानेवाली कौशल्या है। कर्मरूपी कैकेयी, सुमतिरूपी सुमित्रा, कुमतिरूपी मन्थरा, विज्ञानरूपी राम, विवेकरूपी लक्ष्मण; इस प्रकार यह दैवी सम्पत्ति भी अनन्त है।
ब्रह्म आचरणमयी प्रवृत्ति ही वानरी सेना है जिसमें अनुरागरूपी अंगद, वैराग्यरूपी हनुमान, सुरतिरूपी सुग्रीव, साधनरूपी जामवन्त इत्यादि असंख्य वानर हैं।
बानर कटक उमा मैं देखा।
सो मूरख जो करन चह लेखा।। (मानस, 4/21/1)
भगवान शंकर कहते हैं- उमा! मैंने वानरी सेना देखी। वह मूर्ख है जो उसकी गणना करना चाहता है। अर्थात् वानरी सेना अगणित थी। इधर अगणित वानरी सेना; उधर रावण की अनगिनत निशाचरी सेना। युद्धस्थल लंका। आज कुल पाँच लाख की जनसंख्या है वहाँ! छठें या सातवें लाख के लिए भी स्थान नहीं है। भारतीयों को वहाँ नागरिकता नहीं मिल रही है; क्योंकि स्थानाभाव है। उस समय करोड़, नील, पद्म तथा महाशंख से भी अधिक असंख्य निशाचर और असंख्य वानरी सेना थी। कहाँ टिके थे वे सब? लड़ते कहाँ थे? खाते कहाँ थे? क्या घटनाएँ नहीं घटीं?
घटनाएँ घटित हुईं, इसमें सन्देह नहीं है। अन्यथा इतिहास न बनता, दृष्टान्त न बनते। बाह्य घटनाओं के माध्यम से महापुरुषों ने अन्तःकरण की घटनाओं को भी इंगित किया। इन घटनाओं के माध्यम से महापुरुषों ने कुशलतापूर्वक जीवनयापन करने का मर्यादित उदाहरण प्रस्तुत किया; किन्तु सदाचारपूर्वक जी लेने मात्र से ही हमारा परमकल्याण सम्भव नहीं है।
इसलिए मनीषियो ने ऐतिहासिक कथानकों के माध्यम सेे परमकल्याण की क्रियाओं का, अन्तःकरण के संघर्ष का तथा क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के युद्ध का भी पथ प्रशस्त किया। वास्तव में शरीर ही ब्रह्माण्ड है, पृथ्वी है। इसके अन्तराल में चर-अचर, अनन्त लोक और असंख्य शरीर विद्यमान हैं। यह असंख्य निशाचरी और वानरी सेना एवं नाना प्रकार के शरीर मन में ही हैं–
मन में यथा लीन नाना तन,
प्रकटत अवसर पाये। (विनय पत्रिका, 142)
इस प्रकार शरीर में दैवी एवं आसुरी दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ हैं। आसुरी प्रवृत्तियों से एवं मोह के द्वन्द्व सेे आकुल होकर मनुष्य तीर्थों में जाता है। देवताओं और मुनियों की शरण में जाता है। ऐसी ही विकलता मनु को हुई थी–
हृदय बहुत दुख लाग, जनम गयउ हरि भगति बिनु।। (मानस, 1/142)
हृदय ग्लानि से भर गया और मनु निकल पड़े देवताओं और मुनियों की शरण में। नैमिषारण्य पहुँचे। नियम ही नैमिषारण्य है। नियम करने कहीं जाना नहीं पड़ता। केवल ‘धेनुमति तीरा’ (मानस, 1/142/5)- इन्द्रियों को बुद्धि के अधीन करना पड़ता है। इसी प्रकार यह शरीररूपी पृथ्वी भी ‘‘गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी’’ (रामचरित मानस, 1/183/7), देवी-देवताओं की शरण में जाती है, तीर्थों का आश्रय लेती है। तीर्थों से प्रेरणा मिलती है, पुण्य-पुरुषार्थ बढ़ता है; सहयोग भी मिलता है परन्तु उतने से परमकल्याण सम्भव नहीं होता। मुनियों से उपदेश मिलता है, पुण्य और बढ़ता है, भजन की विधा बढ़ती है फिर भी इतने से ही परमकल्याण नहीं हो जाता। तीर्थों ने, मुनियों ने सहयोग दिया और पृथ्वी के साथ ब्रह्मा तक गये।
अहंकार सिव बुद्धि अज,
मन ससि चित्त महान। (मानस, 6/15 क)
ब्रह्मा अर्थात् ब्रह्मस्थित महापुरुष, जिनकी बुद्धि मात्र यंत्र है, जिनके माध्यम से परमात्मा ही प्रसारित होता है, ऐसे ही महापुरुषों की वाणी का संकलन वेेद है। इसीलिए वेद अपौरुषेय हैं, क्योंकि उन महात्माओं की वाणी से अव्यक्त पुरुष मुखरित होता है।
~स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी परमहंस।©
विनम्र शुभकामनाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
                                                                         
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