साधना की पूर्ति के लिए उत्तरोत्तर आसक्ति का त्याग ही त्याग है, कृपया उत्तरोत्तर आसक्ति को समझाइए………!!!!।

एक भाविक द्वारा साधनात्मक प्रश्न।

एक गृहस्थ के लिए अत्यंत भावनात्मक प्रश्न जिसकी स्पष्ट साधनात्मक व्याख्या उसके आध्यात्मिक जीवन के प्रारम्भ के लिए प्रेरणाश्रोत बन सकती है। इसके पहले की हम इस पर विचार प्रारम्भ करें, मैं पूज्य गुरुदेव की पूरी वाणी को सामने रखना चाहता हूं जिससे भ्रम की कोई स्थिति उत्त्पन्न न हो। पूज्यवर ने व्यक्त किया है:

“पूर्ण त्याग सन्यास है, जहां संकल्प और संस्कारों का भी समापन है और इससे पहले साधना की पूर्ति के लिए उत्तरोत्तर आसक्ति का त्याग ही त्याग है।”

अर्थात साधना की पूर्ति के लिए उत्तरोत्तर आसक्ति का त्याग ही त्याग है किंतु पूर्ण त्याग नहीं है। सर्वस्य का न्यास ही पूर्ण त्याग है जहां संकल्प और संस्कारों के समापन के साथ ही पूर्ण सन्यास है। हमें त्याग और सन्यास का स्पष्ट भेद अवश्य मालूम होना चाहिए ताकि पूर्ण सन्यास के प्रति न कोई भय हो, न ही भेद हो, न भ्रम हो।

अब मूल प्रश्न पर विचार करते हैं। पहले आसक्ति है क्या? मोह और आसक्ति अलग अलग विकार है या एक ही है? क्या हम कभी उस पर विचार करते हैं यद्यपि हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बनकर यह सदैव जीवंत रहता है।

भगवद गीता के अध्याय एक में अनेक योद्धाओं का वर्णन है। उनमे दुर्योधन(मोह), के अतिरिक्त दो और योद्धाओं का भी संदर्भ है। द्रोण(द्वैत का आचरण) और अश्वथामा(आसक्ति)। सभी कौरव पक्ष के योद्धा हैं। दोनों विजातीय पक्ष के आसुरी सम्पद की श्रेणी में आते हैं। सृष्टि में कहीं भी वस्तुओं में ऐसा लगाव जो चित्त से इतना चिपक जाय कि अलग करना असंभव हो जाय, आसक्ति है। मुझे अंग्रेज़ी में गीता अनुवाद करते समय अत्यंत कठिनाई हुई थी। आसक्ति को अंग्रेज़ी में कैसे व्यक्त करें, इस समस्या का समाधान मेरे एक अमेरिकन मित्र ने, जिसकी आवाज़ में मैंने गीता का अंग्रेज़ी ऑडियो रिकॉर्ड किया है, बहुत विचार करने के बाद बताया। उसने FIXATION शब्द बताया। चिपक गया तो चिपक गया। समाप्त नहीं होगा। मोह तो आगे पीछे कम या अधिक होता रहता है किंतु आसक्ति से मुक्त होना अत्यंत कठिन है।

अश्वत्थामा को श्रीकृष्ण ने उसके कुकृत्य के लिए श्राप दिया था। उत्तरा के गर्भ पर उसने मना करने पर भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया था। योगेश्वर ने यही श्राप दिया था कि तुम्हारे शरीर से आजीवन खून, पीब, मवाद रिसता रहेगा और तूं कभी मृत्यु को भी नहीं प्राप्त होगा। महाभारत के युद्ध के पूर्णतया अंत होने में बाद भी अश्वथामा रणभूमि में अनगिनत शवों के बीच अपने शरीर को जमीन से घिसटता, विलखता, रोता हुआ पाया गया था। ये है अश्वथामा का चरित्र जिसका जन्मदाता द्रोणाचार्य है जो द्वैत का आचरण है। द्वैत ही आसक्ति का जन्मदाता है। परमात्मा से अलग होने की जानकारी ही द्वैत का भान है। परमात्मा से दूरी ही आसक्ति को आमंत्रित करती है। द्रोण का अश्वथामा के प्रति आसक्ति ही उनके मृत्यु का कारण बना यद्वपि वे स्वयं कुशल योद्धा थे। अतः साधना की पूर्ति (महाभारत के गौरवशाली अंत के लिए जो अन्तःकरणचल में चल रहा है) के लिए उत्तरोत्तर आसक्ति का त्याग ही त्याग है और अनिवार्य है।

अब प्रश्न है उत्तरोत्तर त्याग। उत्तरोत्तर का अर्थ है धीरे धीरे (gradually) क्योंकि इस दुर्धष योद्धा का अंत तत्काल प्रभाव या पराक्रम से नहीं हो सकता। हम तत्काल आसक्ति से मुक्त नहीं हो सकते और मुक्त होना भी है अन्यथा जीवन मरण का बंधन समाप्त नहीं होगा। “पुनरपि जन्मम पुनरपि मरणम” इसका क्रम चलता रहेगा।

पूज्य कबीरदास जी ने कहा है:

“धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।”

गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि अनेक जन्म की संसिद्धि में तू मुझे प्राप्त कर सकेगा। स्वयम ईश्वर भी जानते हैं कि हम किस दुरूह परस्थितियों में फंस गए हैं और इसीलिए हमारे शिथिल प्रयत्न को भी सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। परमात्मा सिर्फ इतना ही देखता है कि हमारी अनवरत चेष्टा उस तक पहुंचने की है या नहीं या हम माया से लिपट कर अपना लक्ष्य पूर्णतया भूल चुके हैं।

आदि शंकराचार्य जी का “शिवोहम शिवोहम” का उदघोष आत्मस्थित के प्राप्ति के पश्चात का था और उसके लिए उनकी कठोर तपश्चर्या हमारे लिए मार्गदर्शक है। उतना ही करना पड़ेगा, इसमें कोई भी रियायत या शॉर्टकट नहीं होता। बिना उसके “शिवोहम” का उदघोष नारा लगाने जैसा है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। सभी महापुरुषों ने इतना ही किया है। मीरा, तुलसी, कबीर, रामकृष्ण परमहंस इत्यादि अनेको ने भक्ति की उस सीमा का स्पर्श किया जहां भौतिक जगत की कोई भी शक्ति भले माया का प्रबल प्रहार ही क्यों न हो, उन्हें परमात्मा से किसी कीमत पर विभक्त नहीं कर सकी। यही भक्ति की सही परिभाषा है। किंतु धीरे धीरे। लंबी यात्रा है, बहुत धैर्य की आवश्यकता होती है। जिनके साथ संस्कार बंधे हैं, उनके साथ लिए गए संकल्पों का बोझ धीरे धीरे कटता है यदि क्षमता के अनुकूल साधना की पूर्ति होती रहे।

रामचरित मानस का गायन है:

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।।
जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवे सभय सरन तकि मोही।।
तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना।।
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं।।
अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें।।
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें।।

साधना इतनी कठिन होती है। इसीलिए गुरु की आवश्यकता होती है। कमर्शियल गुरु नहीं अपितु पूर्ण महापुरुष। पूर्ण महापुरुष पुण्य पुंज के संचय और ईश्वर के अनवरत प्रार्थना से ही प्राप्त होते हैं। साधना का मार्ग वही अपने निर्देशन में प्रशस्त करते रहते हैं। साधना की पूर्ति होती रहती है और साधना के परिणामस्वरूप स्वतः जो जुड़ना होता है जुड़ जाता है और जिसका त्याग करना होता है उत्तरोत्तर त्याग हो जाता है। अपने प्रयास से कुछ करना अत्यंत कठिन है। ज्ञान मार्ग से चलने वाले स्वयं प्रयास करते हैं लेकिन अत्यंत कठिन है। भक्ति मार्ग से चलकर मार्ग आसान ही जाता है।
स्वतः न कुछ जोड़ना होता है ना ही त्यागना। सब महापुरुष के सत्संग से, उनकी कृपा से, विमल विभूति से और प्रभाव से संभव हो जाता है।

भक्त सूरदास ने अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है। उद्धव, गोपियों को समझाने गए थे जो कृष्ण के विरह में व्याकुल थीं। गोपियों ने कहा:

उधो, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।
स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।
सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस॥

सद्गुरु की कृपा से जब मन परमात्मा में रमने लगता है तो संसार के अन्य विषय उत्तरोत्तर अरुचिकर लगने लगते हैं। मन तो एक ही है। जैसे जैसे परमात्मा की ओर आकृष्ट होता जाएगा, साधना की पूर्ति होती जाएगी और उत्तरोत्तर आसक्ति का स्वतः त्याग होता जाएगा। आसक्ति ही नहीं अपितु सारे मन के विकार अपने आप ही साधना के मार्ग से अलग थलग होते जाते हैं। प्रभु स्वयं ही लीला रच देते हैं और भक्त की साधना गति पकड़ने लगती है। पूज्य गुरुदेव ने इसलिए ऐसा बताया है कि अक्सर सफल भक्त भी माया के असह्य दवाब में भटक जाता है और नष्ट हो जाता है। इसलिए प्रभु प्रेरणा से जिसका त्याग हो जाय उसका हृदय में पुनः प्रवेश न होने पाए। उसका सर्वथा त्याग हो जाय।

इसके लिए अनावश्यक दबाव या हठ हानिकारक होता है। मरकट
वैरागी सदा असफल रहता है जो आज के परिवेश में दिख रहा है।

यह गंभीर विषय है। इस पर तो पुस्तक लिखी जा सकती है। लेकिन संछिप्त जानकारी के लिए इस लेख से सहायता मिल सकती है।

इस सूक्ष्म आध्यात्मिक ज्ञान के लिए पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में सादर नमन।

हरि ओम।


विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
🙇

 

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