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प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण और हृदयस्पर्शी है।
पहले हमें ये पता होना चाहिए की तप की आवश्यकता क्या है?
तप से लाभ क्या है?
एक भाविक का भावपूर्ण प्रश्न।
योगेश्वर कृष्ण के अनुसार राग और विराग, दोनों से परे वीतराग तथा इसी प्रकार भय अभय, क्रोध अक्रोध दोनों से परे, अनन्य भाव से अर्थात अहंकाररहित मेरी शरण हुए बहुत से लोग ज्ञान तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त होते हैं। श्वास प्रश्वास के यज्ञ और तप का भोक्ता मैं हूं। पृथ्वी में पवित्र गंध और अग्नि में तेज हूँ। सम्पूर्ण जीवों में जीवन हूं और तपस्वियों में उनका तप हूं। लक्ष्य के अनुरूप अपने को तपाना दैवी सम्पद के लक्षण हैं। परमात्मा ही सर्वत्र है, इस भाव से फल को न चाहकर शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट नाना प्रकार के यज्ञ, तप और दान की क्रियाएं परम कल्याण की इच्छा करने वालों द्वारा की जाती हैं। यज्ञ, तप और दान को करने में जो स्थिति मिलती है, वह भी सत है। किंतु बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप, और जो भी किया हुआ कर्म है, वह सब असत है। यज्ञ, दान और तप त्यागने योग्य नहीं है क्योंकि तीनो ही पवित्र करने वाले हैं।
सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके चित्त के वृत्तियों के अनुरूप होती हैं।
मनुष्य श्रद्धामय है।
इसलिए जो मनुष्य जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयम भी वही है।
जैसी श्रद्धा वैसी वृत्ति वाला मनुष्य।
चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना ही योग है। तप के द्वारा इन वृत्तियों को रोकने में सहायता मिलती है।
उस समय वह जीवात्मा अपने ही शाश्वत स्वरुप में स्थित हो जाता है।
अन्यथा जैसा अंतःकरण के वृत्ति का रुप है, वैसा ही वह स्वयं है।
जैसी वृत्ति वैसा मनुष्य।
अतः अन्तःकरण की वृत्ति तप के प्रकार के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
महापुरूषों के अनुसार स्थूल शरीर द्वारा किये गए तप से स्थूल शरीर द्वारा सम्पन्न किये गए पाप और सूक्ष्म शरीर के तप से सूक्ष्म शरीर के द्वारा हुए पाप का शमन हो जाता है।
अन्तःकरण की वृत्तियां अनन्त है। तप के प्रकार का निर्धारण मनुष्य के अन्तःकरण की वृत्तियां ही करती हैं।
परमदेव परमात्मा, द्वैत पर जय प्राप्त करने वाले द्विज, सद्गुरु और ज्ञानी जनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, तथा अहिंसा शरीर संबंधी तप कहा जाता है। शरीर सदैव वासनाओं की तरफ की ओर दौड़ता है, इसलिए अन्तःकरण के उपर्युक्त वृत्तियों के अनुरूप तपाना शारीरिक तप है।
उद्वेग न पैदा करने वाला, प्रिय, हितकारक और सत्य वचन तथा परमात्मा में प्रवेश दिलाने वाले शास्त्रों के चिंतन का अभ्यास, नाम जप, ये वाणी का तप है। अनर्गल वाणी को समेट कर परमात्मा के दिशा में लगा देना वाणी संबंधी तप है।
मन की प्रसन्नता, सौम्यभाव, मौन अर्थात अन्य विषयों का स्मरण भी न ही, मन का निरोध, अन्तःकरण की सर्वथा पवित्रता- यह मन संबन्धी तप है। शरीर, वाणी और मन का तप मिलाकर एक सात्विक तप है।
जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए अथवा केवल पाखंड से ही किया जाता है,
वह अनिश्चित एवम चंचल फल वाला तप राजस तप कहलाता है।
जो तप मुर्खतापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर के पीड़ा सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए बदले की भावना से किया जाता है, वह तप तामस तप कहा जाता है।
उपरोक्त वर्णित मानवीय गुणों अथवा दुर्गुणों के पृष्ठभूमि में मुख्य भूमिका
उसके अन्तःकरण में छिपी वृत्तियों का ही है
जो उसके स्वभाव का निर्धारण करती हैं।
अतःजैसी श्रद्धा वाला मनुष्य, वैसा ही वह स्वयं और उसके अनुरूप उसके चित्त की वृत्तियां होती हैं जो अन्तःकरण का अभिन्न अंग बनकर हमारे क्रिया कलापों को प्रभावित करती रहती हैं। अन्तःकरण में छिपी वृत्तियों के अनुसार ही तप के प्रकार का निर्धारण होता है।
यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति अन्तःकरण को दूषित वृत्तियो की दासता से मुक्त कराए बिना
किसी भी कीमत पर दोषमुक्त तपस्वी नहीं बन सकता।
अन्तःकरण की वृत्ति के अनुरूप तप का यही अर्थ है।
इस सूक्ष्म आध्यात्मिक ज्ञान के लिए पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में सादर नमन।
हरि ओम।
विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।