अंतःकरण में, ज्ञान रूपी अग्नि में, अविद्या रूपी होलिका का जल जाना और भगवद्प्रेम रूपी प्रह्लाद का निखर आना ही होली पर्व का वास्तविक पक्ष है।
समष्टि सूक्ष्म का नाम हिरण्यगर्भ है, इसी से स्थूल जगत उत्पन्न है, इसका अंकुश ही हिरण्यांकुश है। यही मूल अज्ञान है, जो जन्म मरण का बंधन डालकर, भगवान से विमुख करने वाला है। (इस जगत पर जिसकी दृष्टि टिकी है, वह हिरण्य+अक्ष, हिरण्याक्ष है।)
नारायण शब्द श्रवण संयोग से, बुद्धि में भगवद्प्रेम का उदय हो जाना ही प्रह्लाद का जन्म है। अभी यह छोटा है, नामजप से आगे विकास को प्राप्त होगा।
अनेकानेक संकटों से गुजरने के बाद, प्रेम प्रगाढ़ होने पर, अन्य चारा न देखकर, अविद्या होलिका इसे अपने आवरण में डालकर, विषयाग्नि में जला डालने का प्रयास करती है। पर साधक आसक्ति रहित होने से बच जाता है और अविद्या स्वयं जल कर राख हो जाती है।
इसी प्रक्रिया को स्मरण कराने के लिए सनातन हिन्दू परम्परा में होली मनाई जाती है।
उद्देश्य यही है कि साधक इसी मार्ग से चलता हुआ,
स्वयं प्रह्लाद हो जाए।
कालांतर में, दृढ़ निश्चयात्मिका बुद्धि रूपी स्तम्भ से, वह सत्यस्वरूप परमात्मा अपरोक्ष हो जाता है।
नर मृत्यु के भय से पार होकर भय रहित सिंह हो जाता है। यही नरसिंह अवतार है।
तब द्वैत रहता ही नहीं, दिन रात, अंदर बाहर, ऊपर नीचे का भेद रहता ही नहीं।
उस परम अद्वैत में, जहाँ कूटस्थ आत्मस्वरूप के सिवा दूसरा कुछ है ही नहीं, वहाँ हिरण्यांकुश कैसे बचे? यही परमात्मा प्राप्ति है।
उस परम अद्वैत में, जहाँ कूटस्थ आत्मस्वरूप के सिवा दूसरा कुछ है ही नहीं, वहाँ हिरण्यांकुश कैसे बचे? यही परमात्मा प्राप्ति है।
इस अभूतपूर्व आध्यात्मिक रहस्य के स्पष्टीकरण के लिए परम आदरणीय पूज्य गुरुदेव के श्री चरणों में नमन पूर्वक कोटिश प्रणाम।
विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~मृत्युञ्जायनन्द।
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In the inner realm, in the fire of spiritual wisdom,
the burning of Holika which is the form of ignorance and the shining of Prahlad
in the form of God’s love is the real aspect of Holi festival.
The name of the subtle whole is Hiranyagarbha, from this the gross world is born, its control is Hiranyankush.
This is the basic ignorance, which by putting the bondage of birth and death, keeps us turned away from God.
(The one whose vision is fixed on this mortal world is Hiranya+Aksha, Hiranyaksha.)
Hearing the word Narayan coincidentally, the birth of God”s love in the intellect is the birth of Prahlad.
Right now, in the beginning, it is not sufficient, but regular intoning the name of God will lead the same
to a certain elevated height of spirituality.
After going through many difficulties, when the love becomes intense, seeing no other option,
Avidya Holika tries to burn it in the fire of worldly passions by covering it in her direct influence.
But the seeker is saved by being free from attachment and ignorance itself gets burnt to ashes.
Holi is celebrated in Sanatan Hindu tradition to remember this process.
The aim is that the seeker should walk on this path and become Prahlad himself.
In course of time, from the pillar of firm decisive intellect of a determined soul,
that true form of God becomes perceptive.
A man overcomes the fear of death and becomes a fearless lion. This is Narasimha Avatar.
that true form of God becomes perceptive.
A man overcomes the fear of death and becomes a fearless lion. This is Narasimha Avatar.
Then there remains no duality, there is no difference between day and night, inside and outside, up and down.
In that supreme advaita, where there is nothing other than the eternal, immutable supreme form of self,
how did Hiranyakush survive there?
This is the attainment of God.
Millions of obeisances and salutations at the lotus feet of the most revered respected Gurudev
for
the clarification of this unprecedented spiritual mystery.
Humble Wishes.
~mrityunjayanand.