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A message to entire Globe defining “Dharma” in view of Bhagavad Gita verse / श्रीमदभगवदगीता से परिभाषित “धर्म” शब्द की आध्यात्मिक व्याख्या….….!!!
श्रीमदभगवदगीता से परिभाषित “धर्म” शब्द की आध्यात्मिक व्याख्या।
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विश्व के नाम एक संदेश।
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https://mypath.geetadhara.org/a-message-to-entire-globe…/
परमात्मा ही सत्य है, शाश्वत है, अजर, अमर, आपरिवर्तनशील और सनातन है;
किन्तु वह परमात्मा अचिंत्य और अगोचर है, चित्त की तरंगों से परे है।
चित्त का निरोध करके उस परमात्मा को पाने की विधि विशेष का नाम कर्म है।
इस कर्म को कार्यरूप देना धर्म है।
इस कर्मरूपी धर्म का किंचितमात्र साधन जन्म मृत्यु के महान भय से उद्धार करने वाला होता है।
अतः इसी कर्म को कार्यरूप देना धर्म है।
किन्तु वह परमात्मा अचिंत्य और अगोचर है, चित्त की तरंगों से परे है।
चित्त का निरोध करके उस परमात्मा को पाने की विधि विशेष का नाम कर्म है।
इस कर्म को कार्यरूप देना धर्म है।
इस कर्मरूपी धर्म का किंचितमात्र साधन जन्म मृत्यु के महान भय से उद्धार करने वाला होता है।
अतः इसी कर्म को कार्यरूप देना धर्म है।
जिस परमात्मा से सभी प्राणियों की उत्पत्ति हुई है, जो सर्वत्र व्याप्त है,
स्वभाव से उत्पन्न हुई छमता के अनुसार उसे भलीभांति पूजकर मानव परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है
अर्थात
नियत विधि से एक परमात्मा का चिन्तन ही धर्म है।
भगवदगीता में श्रीकृष्ण ने कहा – “सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।” ( गीता, 18/66) – अर्जुन ! सारे धर्मों की चिंता छोड़ कर एक मेरी शरण हो जा।
अतः एक परमात्मा के प्रति समर्पित व्यक्ति ही धार्मिक है।
एक परमात्मा में श्रद्धा स्थिर करना ही धर्म है।
उस एक परमात्मा के प्राप्ति की निश्चित क्रिया को करना धर्म है।
इस स्थिति को प्राप्त आत्मतृप्त महापुरुषों द्वारा निर्दिष्ट मार्ग एवं सिद्धान्त से चलना ही धर्म है जो सदा एक ही है।
धर्म मनुष्य के आचरण की वस्तु है।
वह आचरण केवल एक है- “व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।”(गीता, 2/41)।
इस कर्मयोग में निश्चयात्मक क्रिया एक ही है- इंद्रियों की चेष्टा और मन के व्यापार को संयमित कर
परात्पर ब्रह्म में प्रवाहित करना – सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।”
धर्म मनुष्य के आचरण की वस्तु है।
वह आचरण केवल एक है- “व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।”(गीता, 2/41)।
इस कर्मयोग में निश्चयात्मक क्रिया एक ही है- इंद्रियों की चेष्टा और मन के व्यापार को संयमित कर
परात्पर ब्रह्म में प्रवाहित करना – सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।”
( गीता, 4/27)।
~स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी।©
विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
.
A message from Bhagavad Gita to entire Globe.
I feel that in the terrible crisis of present time
when entire globe is not able to find any proper solution for own survival,
we must contemplate upon the two below mentioned verses from Bhagavad Gita
which may give us proper shelter in lotus feet of God
and
sufficient strength to combat against COVID-19 horrible war
waged against entire humanity in the whole world.
What is very interesting with these two verses is that the first line is common
and
it is a point to be considered very seriously that why this line was repeatedly emphasized
by Lord Krishna while teaching
Bhagavad Gita
to his loving disciple Arjun?
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९-३४॥
manmanā bhava madbhakto madyājī mām namaskuru
māmevaisyasi yuktvaivamātmānam matparāyanah||9-34||
अर्जुन ! मेरे में ही मनवाला हो।
सिवाय मेरे दूसरे भाव मन में न आने पावे।
मेरा अनन्य भक्त हो, अनवरत चिंतन में लग।
श्रद्धासहित मेरा ही निरन्तर पूजन कर और मेरे को ही नमस्कार कर।
इस प्रकार मेरी शरण हुआ, आत्मा को मुझमें एकीभाव से स्थित कर तू मुझे ही प्राप्त होगा।
“If, taking refuge in and with a total devotion of the Self to me,
you contemplate, remember with humble reverence,
and worship only me,
you will attain to me.”
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८-६५॥
manmanā bhava madbhakto madyājī māṁ namaskuru
māmevaiṣyasi satyaṁ te pratijāne priyo’si me||18-65||
अर्जुन! तू मेरे में ही अनन्य मन वाला हो,
मेरा अनन्य भक्त हो,
मेरे प्रति श्रद्धा से पूर्ण हो,
मेरे को ही नमन कर।
ऐसा करने से तू मेरे को ही प्राप्त होगा।
यह मैं तेरे लिए सत्य प्रतिज्ञा करके कहता हूं ;
क्योकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।
“I give you my sincere pledge,
because you are so dear to me,
that you must attain to me if you keep me in mind,
adore me, worship me,
and bow in obeisance to me.”
Bow down in lotus feet of revered Gurudev
for
such intuition to my inner realm.
Humble Wishes.
~mrityunjayanand.