Shree Ram is Comprehensible through Yogic Experiences!

योगिक अनुभवों के माध्यम से श्रीराम को समझा जा सकता है!
Shree Ram is Comprehensible through Yogic Experiences!
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वह बिना कानों के सुनता है, बिना आंखों के देखता है, बिना पैरों के चलता है, बिना हाथों के हर काम करता है। इस प्रकार उसके सभी कर्म अद्भुत और अलौकिक हैं। इसका अर्थ स्पष्ट है कि ऐसे राम को केवल योगिक अनुभवों के माध्यम से ही समझा जा सकता है, अर्थात् ऐसा अस्तित्व सूक्ष्म है और वह राम है। यही निष्कर्ष भगवान शंकर ने रामचरितमानस में निकाला है।

He hears without ears, sees without eyes, walks without legs, does every work without hands. Thus all his deeds are supernatural and unearthly. The implication is clear that such a Ram is comprehensible only through Yogic experiences, in other words such a being is subtle and he is Ram. So, is the conclusion drawn by Lord Shanker in Ram Charit Manas.

 

राम का जन्म भी ध्यान देने योग्य है: जो अव्यक्त रहते हैं, बिना पैरों के चलते हैं, बिना आँखों के देखते हैं, बिना शरीर के साकार होते हैं, वे प्रेममयी भक्ति के माध्यम से कौशल्या की गोद में जन्म लेते हैं।
कौशल्या वास्तव में प्रेममयी भक्ति का प्रतीक हैं। ‘कौशल्या’ शब्द की जड़ ‘कोष’ है। व्याकरण की दृष्टि से कोष का अर्थ है संपत्ति का केंद्र। आध्यात्मिक संपत्ति ही एकमात्र शाश्वत संपत्ति है और यह भक्ति में संचित होती है। इसी कारण उन्हें कौशल्या के नाम से जाना जाता है।

The birth of Ram is also noticeable:One who remains unmanifested, moves without legs, sees without eyes, gets embodied without body, takes birth in the lap of Kaushalya through loving devotion. Kaushalya is actually the symbol of loving devotion. The root of the word Kaushalya is ‘Kosh’. Etymologically Kosh means thecenter of the wealth. The spiritual wealth is the only lasting wealth and this is stored in devotions. For this reason she is known as Kaushalya.

वह आनंद का सागर हैं, सुखों का पुंज हैं; उनकी एक बूंद ही तीनों लोकों को सुख और शांति देने में सक्षम है।
क्योंकि वह स्वयं आनंद का स्रोत हैं, इसलिए उनका नाम राम है। वह इस संसार के सभी प्राणियों को शांति और विश्राम प्रदान करते हैं। चूंकि वह स्वयं आनंद का स्रोत हैं, दुःख और पीड़ा कभी उन्हें छू भी नहीं सकते।

He is the ocean of bliss, mass of joys, by just a single drop he is capable to give comfort and happiness to all the three worlds. Since he is the abode of happiness, so he is named as Ram. He affords, repose and respite to all the creatures of the world. As he himself is the fountain of happiness, pain and sorrows never could touch him.

यह शरीर स्वयं अवध है। इसमें स्वतंत्र और बंधनरहित बने रहने की अंतर्निहित इच्छा विद्यमान है, इसलिए इसे अवध कहा जाता है।
इस शरीर का शासक दशरथ है, जिसका अर्थ है दसों इंद्रियों पर नियंत्रण। कौशल्या भक्ति का प्रतीक हैं, कैकयी कर्म का, सुमित्रा सच्ची समझ का, मंथरा विकृत सोच का और वशिष्ठ ज्ञान का प्रतीक हैं — ये सभी इस अवध में निवास करते हैं।
वशिष्ठ किस प्रकार के ज्ञान का प्रतिनिधित्व करते हैं? क्या वे सांसारिक ज्ञान का प्रतीक हैं? नहीं, ऐसा नहीं है।
वह ज्ञान जो किसी को केवल आराधनीय के अधीन रखने में सक्षम बनाता है, उसे वशिष्ठ के रूप में दर्शाया गया है। यही ज्ञान सच्चा ज्ञान है।
This body itself is Avadh. In it lies the immanent will to remain free, unbounded by anything. So it is known as Avadh.
The ruler of this body is Dasharath, which means the restraint over all the ten senses. Kaushalya representing devotee, Kaikei representing action, Sumitra representing right understanding,
Manthara representing perverted thinking and Vashishth representing knowledge, all live in such an Avadh.
What kind of knowledge does Vashishth represent? Does he stand for the knowlege of day today worlds affairs? No, it is not so.
The knowledge which enables one to put the adorable only under one’s sway is symbolized as Vashishth. This very knowledge is the true knowledge.

 

अब विचार करें – वह कौन सी विशेष विधि या तकनीक है जो आराधनीय को अपने समीप लाने में सक्षम बनाती है। यह विधि श्वास के प्रबंधन की है, जिसका प्रतीक श्रृंगी ऋषि हैं। कहा गया है कि श्रृंगी ऋषि ने यज्ञ किया।
जप स्वयं यज्ञ है। यज्ञ श्वास के आवागमन का प्रबंधन ही है। हृदय की पवित्रता इस यज्ञ के देवता को समर्पित आहुति है। जब ऐसा यज्ञ किया जाता है, तो राम, जो परम ज्ञान के प्रतीक हैं, भक्ति का प्रतीक कौशल्या की गोद में प्रकट होते हैं।

Now let us think – what is the special technique or method which brings the adorable only under one’s approach. That is the technique of managing the breath symbolised as Shringi Rishi. It is mentioned that Shringi Rishi performed the Yagya (sacrifice). Jap itself is Yagya. Yagya is nothing but the management of inhalation and exhatation of breath. The purity of the heart is the ablation to the God of the Yagya. When such a Yagya is performed, Ram representing absolute knowledge appears on the lap of Kaushalya who stands for devotion.

 

आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अनुभव प्रकट होने लगते हैं। जब यह विकास होता है, तब लक्ष्मण (विवेक), भरत (भावना), शत्रुघ्न (सत्संग) भी साथ ही जन्म लेते हैं। इसके बाद, भक्त के हृदय में अनपेक्षित परिवर्तन होते हैं, उसका विश्वास और अधिक दृढ़ हो जाता है और विश्वामित्र (दृढ़ निश्चय) का अवतरण होता है।

Spiritual and accult experiences do start happening. When this development takes place Lakshman (discretion), Bharat (sentiment), Shatrughn (spiritual company) are also simultaneously born. After this unforeseen things are generated in the heart of the devotee, his conviction become stronger and the Vishwamitra (Conviction) descends.

 

~Revered Gurudev Swami Adgadanand Jee Paramhans~
Wishing a blissful RAMNAVAMI to all my friends around the globe.
Humble Wishes.
~mrityunjayanand~
                                                                                                 

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Unceasingly Remembering Lord Ram! (बार बार रघुबीर सँम्हारी!)

“बार बार रघुबीर सँम्हारी।”
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Unceasingly Remembering Lord Ram!

 

पुण्यमयी रामनवमी पर महापुरुषों का विशेष संदेश!
(रामचरित मानस)
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Important message from great saints on the auspicious occasion of Ram Navami! (Ramcharitmanas)

 

यह ‘मानस’ है। मानस कहते हैं- मन को, अंत:करण को। ‘रामचरितमानस’ अर्थात् राम के वे चरित्र जो मन में प्रवाहित हैं। इसमें संसार ही समुद्र है, वैराग्यवान् पुरुष ही इसका पार पाता है।
This is ‘Manas.’ Manas refers to the mind, the inner consciousness. ‘Ramcharitmanas’ means those deeds of Lord Ram that flow within the mind. In this, the world of existence is like an ocean, and only the detached person can cross it.

 

निसिचरि एक सिन्धु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई।।
जीव जन्तु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।।
(मानस, 5/2/1-2)

 

सिन्धु में एक निशिचरी रहती थी। ‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।’ (गीता, 2/69)- इस जगतरूपी निशा में, चलने और चलानेवाली है, इसीलिए इसका नाम निशिचरी है। यह भवसिंधु में रहती है, और समुद्र में जिसकी परछाईं पड़ती है उसे दबोच लेती है, फिर वह नीचे गिर जाता है।
There was a demoness in the ocean (force in world). ‘In that night of ignorance, the disciplined one remains awake.’ (Bhagavad Gita, 2/69) – In this world-like night, there is movement and a force that drives it, which is why it is called a ‘demoness.’ She resides in the ocean of existence, and whoever’s shadow falls upon the ocean gets caught by her, after which they fall down.

 

गहइ छाँह सक सो न उड़ाई।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई।।
(मानस, 5/2/3)

 

वह छाया को पकड़ लेती थी, जिससे जीव-जंतु उड़ नहीं पाते थे, उनकी गति कुंठित हो जाती थी। इसी प्रकार गगनचरों को, आकाश में उड़नेवालों को खा लिया करती थी।
She would catch hold of the shadow, causing creatures to be unable to fly; their movement would be obstructed. In the same way, she used to consume the sky-dwellers, those who flew in the sky.

 

सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा।
तासु कपटु कपि तरतहिं चीन्हा।।
(मानस, 5/2/4)

 

वही छल उसने हनुमान के साथ किया। उसके कपटाचरण को हनुमान ने तुरंत पहचान लिया, फिर तो-
She used the same deceit with Hanuman. Hanuman immediately recognized her deceitful actions, and then—

 

ताहि मारि मारूतसुत बीरा।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
(मानस, 5/2/5)

 

तुरंत उसे मारकर हनुमान समुद्र पार कर गए। वैराग्य ही हनुमान है- मान और सम्मान का हनन करनेवाला है, इसलिए वैराग्यरूपी हनुमान। पक्षी उड़ता तो आकाश में है किंतु जमीन का सहारा लेता है। केवल वैराग्यवान पुरुष ही इस संसार-सिन्धु के ऊपर उड़ान भरता है। वह भवसिन्धु से ऊपर उठना चाहता है, उठता भी है और क्रमश: उत्थान करते-करते परमतत्त्व परमात्मा में, भव से परे सत्ता में विलय पा जाता है।
Hanuman immediately struck her down and crossed the ocean. Detachment itself is Hanuman—one who destroys pride and honor, which is why Hanuman is symbolized by detachment. A bird flies in the sky but still takes support from the ground. Only the detached person soars above the ocean of existence. He desires to rise above the ocean of worldly life, and as he ascends, gradually, through that elevation, he merges with the supreme truth, the ultimate reality, transcending existence itself.

 

जब पथिक चलता है तब,
‘निसिचरि एक सिन्धु महुँ रहई ।’- दूसरों की इच्छाशक्ति ही निशिचरी है। कोई अच्छा साधक अपनी साधना में अग्रसर होता जाता है तो दूसरे लोग मायिक विचारों को लेकर उससे टकराने लगते हैं। महिलाओं के लिए पुरुष या पुरुषों के लिए महिलायें ऐसा सोचने लगती हैं कि, “बाबा तो बड़े अच्छे हैं। न जाने कब से कटिबद्ध हैं, ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे हैं कितने अच्छे हैं। हमारे संगी साथी रहे होते तो कितना अच्छा होता।”- बस विषय की भयंकर वेदना लेकर वह चिंतन करेंगी। तहाँ उनका चिंतन ज्यों-का-त्यों वैराग्यवान् पुरुष के शान्त चित्त से टकरायेगा; क्योंकि चित्त तो सबका एक ही है। साधक यह निर्णय नहीं कर पाता कि ऐसा चिंतन आया कहाँ से। तुरंत उसी चिंतन से वह आक्रांत हो जाता है। वही भाव पनपते-पनपते कुछ ही समय में साधक को इसी संसाररूपी समुद्र में गिरा देता है। संसार ही समुद्र है। जिसमें विषयरूपी जल भरा है; किंतु–
When a seeker starts traversing on the path, ‘there is a demoness dwelling in the ocean.’ The desires of others is the demoness. When a good seeker progresses in their practice, others with worldly desires begin to clash with them. Women may think of men, or men may think of women, and they start to feel, ‘The master is so good. He has been devoted for so long, practicing celibacy, how wonderful he is. If only we had companions like that.’ With such intense longing, they begin to ponder. Thus when their thoughts clash with a peaceful mind of the detached person because all minds are essentially the same. The seeker cannot discern where such thoughts come from. Immediately, they are overwhelmed by these thoughts. As these feelings grow, in no time they pull the seeker down into the ocean of this world. The world is indeed like an ocean, filled with the waters of desires. However—

 

बार बार रघुबीर सँभारी।
तरकेउ पवनतनय बल भारी।।
(मानस, 5/मंगलाचरण, चौ० 6)

 

जो निरंतर भगवान का स्मरण करता रहता है, जिसमें इष्ट का बल है, जो इष्ट के इशारों पर चलनेवाला है, उस विरक्त पुरुष में तुरंत इस छल को पहचानने की क्षमता होगी कि हमारे चिंतन तो गंदे थे ही नहीं, फिर ये कहाँ से आ रहे हैं? जिसके अंदर इस चिंतन के विभाजन के क्षमता होती है, अपने और पराये चिंतन को जो पहचानने लगता है, उसके ऊपर से इस संकल्पजनित संगदोष का प्रभाव टल जाता है। साधक जान जाता है कि ऐसा बुरा संकल्प कौन कर रहा है? जब चिंतन हमारा है ही नहीं, किसी अन्य की मन:स्थिति टकरा रही है। दुनिया में सब विषयी ही तो हैं, वे कुछ भी सोच सकते हैं; क्योंकि वे उसी क्षेत्र में खड़े हैं, उसी वायुमंडल में हैं और वे करेंगे भी क्या? अतः उन्हें माँ अथवा बहन कह दें, तो फिर संकल्पों की लहर जो साधक से टकरा रही थी, समाप्त हो जाती है। उनकी भाव-भंगिमा बदल जाती है।
संसाररूपी सिंधु में विषय-रस से ओत-प्रोत दूसरों की इच्छाशक्ति साधक के चित्त को पकड़ती है। यही परछाईं का पकड़ना है। जब साधक का चित्त विषय-चिंतन में आवृत्त होने लगता है तो वे संस्कार बन जाते हैं। परिणामत: वह श्रेय साधन से गिर जाता है; किंतु जिस साधक में इष्ट का बल है, अनुभवी आधार पर संकल्पों के विभाजन के क्षमता है, वह इसको सहज ही पार करके आगे निकल जाता है। साधक जानता है कि दुनिया प्राय: वही चिंतन करेगी जिसमें वह लिप्त है। जिसे सर्प ने काटा है, उसे लहर तो आयेगी ही। साधक भी तो पहले दुनिया में रहकर यही सब चिंतन करता था। जहाँ संकल्पों के विभाजन के क्षमता आयी, सांसारिक संकल्पों की लहर साधक के मन से विलग हो जाती है; किंतु यह क्षमता इष्ट को हृदय में सतत सँजोनेवाले साधक में प्रभु की कृपा द्वारा ही आती है। इष्ट द्वारा प्रदत्त अनुभव के बल पर ही साधक ऐसा कर पाता है।
ताहि मारि मारूतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
अतः भजन करो। वे दया के सागर हैं। तुम भी पाओगे।

One who constantly remembers the Lord, who has the strength of their chosen deity and follows their guidance, will immediately have the ability to recognize the deception, understanding that their thoughts were never impure—so where are these foreign thoughts coming from? The one who can discern between their own thoughts and those of others will be able to ward off the influence of these unwanted thoughts. The seeker realizes that these bad thoughts are not his own; they are coming from another’s mindset. In this world, everyone is filled with desires, and they can think whatever they like, because they are in the same environment, the same atmosphere. What can they do? So, when the seeker calls them ‘mother’ or ‘sister,’ the wave of conflicting thoughts that were disturbing the seeker’s mind dissipates, and their mood shifts.

In the ocean-like world, the desires of others, full of worldly attachment, grab hold of the seeker’s mind. This is the same as catching the shadow. When the seeker’s mind becomes entangled in worldly thoughts, they create karmic impressions. As a result, they fall away from their spiritual practice. However, a seeker who has the strength of their deity and the ability to divide their thoughts based on their experience can easily overcome these distractions and continue forward. The seeker knows that the world will mostly think along the lines of whatever they are involved in. Just as someone who has been bitten by a snake will feel the effects, the seeker, having lived in the world before, once had similar thoughts. But when the seeker gains the ability to divide their thoughts, the worldly thoughts separate from their mind. This ability comes only through the grace of the Lord, by constantly keeping the deity in the heart. It is through the strength of the experiences granted by the Lord that the seeker is able to do this.

Thus, after overcoming the obstacle, the great warrior son of the wind, Hanuman, crossed the ocean with a determined mind.

Therefore, keep chanting. He is the ocean of compassion, and you too will receive his blessings.

 

~स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी परमहंस।©
विनयावनत,
~मृत्युञ्जयानन्द।
                                                                                 
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Ram, A Perceptible Spiritual Analysis (राम, एक अनुभवगम्य आध्यात्मिक विश्लेषण)

राम, एक अनुभवगम्य आध्यात्मिक विश्लेषण।
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Ram, a Perceptible Spiritual Interpretation.

 

जो आनंद के समुद्र हैं, सुख की राशि हैं, अपनी एक बूंद से त्रैलोक्य को सुपास प्रदान करने वाले हैं, वे राम हैं।अलौकिक अनुभूतियों के द्वारा, अंग स्पंदन के द्वारा, ध्यानजनित दृश्यों के द्वारा, स्वप्न के द्वारा, आकाशवाणी के द्वारा ईश्वरीय संकेत का नाम ‘राम’ है। यह राम के अनुभति की प्रारंभिक अवस्था है।
He who is the ocean of bliss, the source of joy, and with a single drop grants fulfillment to the three worlds, he is Ram. Through divine experiences, bodily vibrations, visions in meditation, dreams, and celestial messages, the name ‘Ram‘ serves as a sign of the divine. This is the initial stage of experiencing Ram.

 

राम बिना मुंह के बोलते हैं, ध्यान में बोलते हैं, हृदय एवं मस्तिष्क में बोलते है, मन में बोलते हैं, उस बोली का नाम राम है। वह बिना पैरों के चलते हैं, साधक के साथ साथ चलते हैं, उनका नाम राम है। वह विज्ञान, अनुभवी उपलब्धि ही राम है। ‘भव’ कहते हैं संसार को, और ‘अनु’ अतीत को कहते हैं अर्थात भव से बाहर करने वाली जागृति विशेष (अनुभव) का नाम ही राम है। वह है उस परमात्मा की आवाज़ का हृदय में प्रस्फुटन!
Ram speaks without a mouth; he speaks in meditation, in the heart and mind, in the inner consciousness—the name of that voice is Ram. He walks without feet, walks alongside the seeker, he’s Ram. Ram is that wisdom, that experiential realization. ‘Bhav‘ refers to the world, and ‘Anu‘ to the past; thus, the awakening that transcends the worldly realm is called Ram. He is the blossoming of the divine voice in the heart!

 

वह संदेश भीतर सुनाई पड़ता है, दिखाई पड़ता है। इष्ट जब साधक की आत्मा से अभिन्न होकर जागृत हो जायँ, हृदय में दिखाई पड़ने लगें, पथ प्रदर्शन करने लेंगें, वही राम हैं। वह स्वयं आनंद सिंधु और सुखराशि हैं। “सीकर ते त्रैलोक सुपासी”- एक बूंद भी जिन साधक को देता है, उसे त्रैलोक्य में सुपास दे देता है, निर्भय बना देता है। “सो सुख धाम राम अस नामा।” वह सुख का धाम है, उसका नाम राम है।”अखिल लोक दायक विश्रामा” संपुर्ण लोक को विश्राम देने वाला वही एक स्थल है। यही अनुभव चलते चलते जब ईश्वर के समीप की अवस्था आ जाती है तो अनुभवगम्य स्थिति ही मिल जाती है। यह अनुभव साधक भक्त को अपने में विलय कर लेता है। यही राम की पराकाष्ठा है।
This message is heard and seen within. When the beloved deity becomes one with the seeker’s soul, awakening in their heart, and begins to guide them, he’s Ram. He is the ocean of bliss and the source of joy. ‘Sikhar te trailok supasi’—with even a single drop, he grants fulfillment and fearlessness to the seeker across all three realms. ‘So sukh dham Ram as nama’—he is the abode of joy, and he’s Ram. ‘Akhil lok dayak vishrama’—he is the sole place that offers rest to the entire world. As this experience deepens and reaches closer to divinity, it becomes perceptible. This experience absorbs the devoted seeker into itself. This is the ultimate realization of Ram.

 

~स्वामी अड़गड़ानंद जी परमहंस।©
विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
                                                                                 
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That unborn, Eternal One Has, Out of Love and Devotion, Taken the Lap of Kausalya! (सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद!)

सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद…..!!!!!
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That unborn, Eternal One Has, Out of Love and Devotion, Taken the Lap of Kausalya!

 

“रचि महेश निज मानस राखा।”
शंकरजी ने इसे अपने मन के अन्तराल में रखा था ।
Lord Shankar (Shiva) had kept it deep within his heart.

 

राम कथा के तेइ अधिकारी ।
जिन्ह के सतसंगति अति प्यारी ॥
गुर पद प्रीति नीति रत जेई ।
द्विज सेवक अधिकारी तेई ।
( मानस , 7 / 127 / 6-7 )

 

इस अवतरण में दसों इन्द्रियों की निरोधमयी वृत्ति ही दशरथ है , विषयों में तो निरोध होता ही नहीं- 
In this context, the restraining tendencies of the ten senses represent Dasharath, as restraint is never found in worldly indulgences.

 

“जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई” ।
जहाँ निरोध हुआ , संयम सधा ,
सुरत भगवान से जुड़ी तो भक्ति जागृत हुई,
“भक्तिरूपी कौशल्या !”
Where restraint rises, discipline/control of senses is established, and the mind is connected with the Lord, devotion is awakened— Kausalya, the embodiment of devotion.

 

‘ सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोदा ‘
भगवान कौशल्या की गोद में आ गये , जागृत हो गये । विज्ञानरूपी राम ! जो आत्मा प्रसुप्त है , हृदय से जागृत होकर अनुभव प्रसारित करने लगती है ।
यह अवतार है जो किसी – किसी योगी के हृदय में
होता है।

The Lord came into Kausalya’s lap and awakened—Ram, the embodiment of wisdom! The soul, which lies dormant, awakens within the mind and begins to radiate insights. This is the incarnation that manifests in the hearts of only a few yogis.”

 

भगवान पहले शिशुरूप में होते हैं ,
क्रमशः योगरूपी जनकपुर में पहुँचते हैं
जहाँ ध्यानरूपी धनुष है , चित्तचढ़रूपी चाप है ।
चित्त की चंचलता का क्रम टूट जाता है ,
ध्यान की स्थिति बन जाती है
At this stage of a Yogi, Lord is in the form of a child and gradually reaches Janakpur (Yog) where the bow signifies meditation, and the string the focused mind. The restlessness of the mind is broken, and the state of deep meditation is attained.

 

तहाँ शक्तिरूपी सीता , राम शक्ति से संयुक्त हो जाते हैं ।
और जब तक चौदह वर्ष का वनवास अर्थात् अध्यात्म की चौदह भूमिकाएँ पूर्ण नहीं हो जाती ,
तब तक भाव ही श्रेष्ठ होता है , तब तक भरत राजा हैं।
There, Sita (signifies Strengh/Persistence to stay on course) becomes united with the divine power of Ram. And until the fourteen years of exile, which symbolize the fourteen stages of spiritual practice and unless these stages are not completed, the feeling (bhav) remains supreme. During this time, Bharat remains as the king.

 

साधक को श्रद्धाभाव से डूबकर भजन में लगना है
तब तक सीता भी अग्नि में समाहित रहती हैं ,
योगाग्नि में प्रसुप्त रहती हैं ,
मोहरूपी रावण से आवृत्त रहती हैं ।
भगवान ने उनसे कहा था
The seeker must immerse oneself with faith and engage in worship. Until then, Sita remains absorbed in the fire, dormant in the fire of yoga, and enveloped by the illusionary Ravan. The Lord had told her.

 

“सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला ।
मैं कछु करबि ललित नर लीला ।।
तुम्ह पावक महुँ करहुँ निवासा ।
जौ लगि करौं निसाचर नासा ॥”
( मानस , 3 / 23 / 1-2 )

 

~स्वामी अड़गड़ानंद जी परमहंस।
विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~ मृत्युञ्जयानन्द।
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Bow down in your lotus feet O’Lord Ram on this coming great occasion of RAMNAVAMI…..!!!!!

Bow down in your lotus feet O’Lord Ram on this coming great occasion of RAMNAVAMI.
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O (Mann) mind! Invoke the benign Shree Ramachandra,the rescuer from the fears of the harsh sansar (world).
Whose eyes are blooming lotuses, face and hands lotus-like,and feet are like lotus —
with the hue of crimson dawn.
His image exceeds myriad Kaamdevs (Cupids),like a fresh, blue-hued cloud — magnificent.
His amber-robes appear like lightening, pure,captivating. Revere this groom of Janaka’s daughter .
Sing hymns of the brother of destitute, Lord of the daylight,the destroyer of the clan of Danu-Diti demons
The progeny of Raghu, limitless ‘anand’ (joy),the moon to Kosala, sing hymns of Dasharatha’s son.
His head bears the crown, ear pendants, tilak (mark) on forehead,his adorned, shapely limbs are resplendent,
Arms extend to the knees, studded with bows-arrows,who won battles against Khar-Dooshanam
Thus says Tulsidas, O joy of Shankara,Shesh (Nag), (Mann) Mind and (Muni) Sages,
Reside in the lotus of my heart, O slayer of the vices-troops of Kaama and the like.
श्री रामचन्द्र कृपालु भजुमन हरण भवभय दारुणं ।
नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं ॥१॥
कन्दर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरं ।
पटपीत मानहुँ तडित रुचि शुचि नोमि जनक सुतावरं ॥२॥
भजु दीनबन्धु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं ।
रघुनन्द आनन्द कन्द कोशल चन्द दशरथ नन्दनं ॥३॥
शिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अङ्ग विभूषणं ।
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खरदूषणं ॥४॥
इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनं ।
मम् हृदय कंज निवास कुरु कामादि खलदल गंजनं ॥५॥
मन जाहि राच्यो मिलहि सो वर सहज सुन्दर सांवरो ।
करुणा निधान सुजान शील स्नेह जानत रावरो ॥६॥
एहि भांति गौरी असीस सुन सिय सहित हिय हरषित अली।
तुलसी भवानिहि पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मन्दिर चली ॥७॥
॥सोरठा॥
जानी गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल वाम अङ्ग फरकन लगे।
Humble Wishes!!!
mrityunjayanand.
🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️.
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I adore the Lord of the universe bearing the name of Råma……!!!!!

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदांतवेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्
I adore the Lord of the universe bearing the name of Råma,
the Chief of Raghus line and the crest-jewel of kings,
the mine of compassion, the dispeller of all sins,
appearing in human form through His Måyå (deluding potency),
the greatest of all gods,
knowable through Vedånta, constantly worshipped by
Brahmå (the Creator), Shambhu (Lord Shiva)
and Sesha (the serpent-god), the bestower of supreme peace
in the form of final beatitude, placid, eternal, beyond the ordinary means of cognition, sinless and all-pervading.
Humble Wishes!!!
~mrityunjayanand.
                                                                                    🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️
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