Until you Chant the Name of Lord Ram with your Tongue (राम राम राम जीह जौलौं तू न जपिहै)

राम राम राम जीह जौलौं तू न जपिहै ।
तौलौं, तू कहूँ जाय, तिहूँ ताप तपिहैं ॥१॥

 

सुरसरि – तीर बिनु नीर दुख पाइहै ।
सुरतरु तरे तोहि दारिद सताइहै ॥२॥

 

जागत, बागत, सपने न सुख सोइहै ।
जनम जनम, जुग जुग जग रोइ है ॥३॥

 

छूटिबे के जतन बिसेष बाँधो जायगो ।
ह्वैहै बिष भोजन जो सुधा – सानि खायगो ॥४॥

 

तुलसी तिलोक, तिहूँ काल तो से दीनको ।
रामनाम ही की गति जैसे जल मीनको ॥५॥

 

भावार्थः– हे जीव ! जबतक तू जीभ से रामनाम नहीं जपेगा, तब तक तू कहीं भी जा – तीनों तापों से जलता ही रहेगा ॥१॥
गंगाजी के तीरपर जानेपर भी तू पानी बिना तरसकर दुःखी होगा, कल्पवृक्षके नीचे भी तुझे दरिद्रता सताती रहेगी ॥२॥
जागते, सोते और सपने में तुझे कहीं भी सुख नहीं मिलेगा, इस संसारमें जन्म – जन्म और युग – युगमें तुझे रोना ही पड़ेगा ॥३॥
जितने ही छूटनेके ( दूसरे ) उपाय करेगा ( रामनामविमुख होनेके कारण ) उतना ही और कसकर बँधता जायगा; अमृतमय भोजन भी तेरे लिये विषके समान हो जायगा ॥४॥
हे तुलसी ! तुझ – से दीन को तीनों लोकों और तीनों कालों में एक श्री रामनाम का वैसे ही भरोसा है जैसे मछली को जलका ॥५॥

 

विनय पत्रिका,
~पूज्य संत तुलसीदास जी।

 

अनन्त श्रीविभूषित, योगिराज, युग पितामह परम पूज्य दादा गुरुदेव परमहंस श्री स्वामी परमानंद जी महाराज का महाप्रयाण के पूर्व अंतिम उपदेश यही था।

 

Meaning in English: O soul! Until you chant the name of Lord Ram with your tongue, no matter where you go, you will continue to suffer from the three types of afflictions.
Even if you go to the banks of the Ganges, you will still suffer from thirst and sorrow without water. Even under the wish-fulfilling tree (Kalpavriksha), poverty will continue to trouble you.
Whether awake, asleep, or dreaming, you will not find peace anywhere, and in this world, you will have to cry through births and ages.
The more you try other means of liberation (while neglecting the name of Ram), the more tightly you will be bound; even food that is like nectar will turn to poison for you.
O Tulsidas! In all three worlds and throughout all times, the only hope for one as destitute as you is the name of Lord Ram, just as water is for a fish.

Vinay Patrika, ~Revered Saint Tulsidas Ji.

This was also the final teaching given by the greatly revered, adorned with infinite glory, Yogiraj, most revered Guru Paramhans Swami Paramanand Ji Maharaj, before his great departure.

 

विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
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Those Protected by Raghubir (Lord Ram) are Saved, even in the Direst of Times (जे राखे रघुबीर, ते उबरे तेहिं काल महु)

रामनवमी के पुण्य अवसर पर पूज्य गुरुदेव द्वारा अमूल्य आध्यात्मिक रहस्योद्घाटन।
जे राखे रघुबीर, ते उबरे तेहिं काल महु!
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इहां देव ऋषि गरुड़ पठायो ।
राम समीप सपदि सो आयो ।।
दो :- खगपति सब धरि खाए, माया नाग बरूथ।
माया विगत भए सब, हरषे वानर जूथ।।

 

गरुड को भेज दिया नारद ने। नारद कहते हैं आकाश को। साधक की नाभि में – इस नभ में वाणी मिली, अंतर्जगत से ईश्वरीय संकेत हो गया। उपाय हो गया। गरुड़ आ गया। गरुड़ कहते हैं जीते हए मन को। गरुड़ कोई चिडि़या नहीं है।
जानकारी होने से, इष्ट की अनुकूलता से, साधक को अन्दर ही अन्दर संकेत मिल जाता है, तो मन जो विषय से भर गया था, वह उस काम वासना से मुक्त होकर ईश्वरीय भावना से युक्त हुआ। मन सर्प से गरुड बन गया। जो विषय के संकल्यो का जाल बुन रहा था बन्द हो गया – ईश्वरीय संकल्प वाला मन हो गया। यह गरुड़ जब बन गया, तो विषय के संकल्प शान्त हो गए। विषय के संकल्परूपी सर्पों को खा गया गरुड़। मन की ऐसी यह प्रक्रिया है, जो बाहर घटना के रूप में दिखाई गई है। क्षण क्षण में मन बदलता रहता है। विषय में जाता है, तो सर्प कहा जाता है – ईश्वरीय भावनाओं में बहता है तो गरुड़ कहा जाता है, हंस कहा जाता है-

 

पहले यह मन सर्प था , करता जीवन घात ।
अब तो मन हंसा भया , मोती चुन चुन खात ।।

 

तो अब समाज के लोगों में राम का नागपाश में बंध जाना एक बड़ा प्रश्न बन जाता है। भगवान जो बंधन से परे है, असीम है, गुणातीत है, प्रकृतिपार है, वह बंधन में कैसे आ गया? मेघनाद ने नागपाश में डाल दिया – यह कैसे संभव है? गरुड़ को इसी प्रश्न ने परेशान कर दिया था। इसमें समझने की बात यह है कि भगवान कोई आदमी नहीं है – न कोई पदार्थ है। वह तो आकाशवत निर्लेप है। आकार रहित है। ऐसा जो तत्व है, सबके अन्दर आत्मा के रूप में है। ‘आत्मा नाम की शरीर के अन्दर कोई अलौकिक चीज है। वह परमात्मा ही माया से आच्छादित होकर जीवात्मा कहा जाता है। वह बोल रहा है अन्दर से।
वह परमात्मा, जीवात्मा रूप से सबके अन्दर माया के वशीभूत होते हुए भी, तत्वतः निर्लेप है। वह बंधते हए भी बंधता नहीं, चलते हुए चलता नहीं, बोलते हुए। बोलता नहीं। ऐसा जो भगवान है, वह – कैसे नागपाश में बंध गया और गरुड के छुड़ाने से छूटा। जो खुद अपने को नहीं छुड़ा पाया तो दूसरे को क्या छुड़ाएगा? तो यह सब भगवान कुछ नहीं करता – न बंधता है न बांधता है, न छूटता है न छुड़ाता है। वह तो ज्यों का त्यों है स्तंभवत। उसकी माया का सब खेल है। मनुष्य का मन एक विचित्र उपकरण है। शास्त्र कहता है-

 

‘मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षायोः।
बंधाय विषयासक्तं , मुक्त्यैर्निर्विषयस्मृतम् ।।

 

यह मन जब माया उन्मुख होता है तो बांधने वाला बन जाता है। विषयोन्मुख होकर नागपाश बनजाता है। यही मन निर्विषय होकर ईश्वरोन्मुख होता है तो गरुड बन कर बंधन काट देता है – मोक्ष दिला देता है। तो यह सब साधनात्मक बातें हैं। उच्च स्तर की बातें हैं। बुद्धि लगाकर समझना पड़ेगा। मानस में अवगाहन करना पड़ेगा।

 

इहां विभीषन मंत्र विचारा ।
सुनहु नाथ बल अतुल उदारा ।।
मेघनाद मख करइ अपावन ।
खल मायावी देव सतावन ।।
जौ प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि ।
नाथ वेगि पुनि जीति न जाइहि ।।
सुनि रघुपति अतिसय सुख माना ।
बोले अंगदादि कपि नाना ।।
लछिमन संग जाहु सब भाई ।
करहु विधंस जग्य कर जाई ।।

 

जामवंत ने मेघनाद को मूर्छित करके लंका में फेंका। जब उसको होश हआ तो रावण को वहां देखकर उसे लाज लगी। क्योंकि खूब डींग हांक रहा था कि – ‘देखेहु कालि मोरि मनुसाई’ और खुद ही हार खा गया। तो जाकर एक पहाड़ की गुफा में निकुंभला देवी की आराधना करने लगा। अपावन यज्ञ करने लगा। निकुंभला देवी का मतलब स्त्री की इंद्रिय (योनि) से है। यह कामरूपी मेघनाद की इष्ट देवी है। कामावेशित पुरुष को वही अभीष्ट होता है। उसी का यजन – भजन होने लगा। लेकिन यह अपावन यज्ञ यदि पूरा हुआ – अगर स्त्री संसर्ग हो गया एक बार – तो फिर कामदेव को कोई जीत नहीं सकता। फिर साधक सदा के लिए पतित हो जाता है। कामवासना को जीत नहीं पाएगा। इसलिए यह अपावन यज्ञ हो न पाए अर्थात साधक को संभलना चाहिए। तो भगवान संभालते हैं , तभी संभल सकता है।
‘जे राखे रघुबीर, ते उबरे तेहि काल महुँ।’

 

तो विभीषण ने बताया राम से, कि ऐसा होने वाला है। यह विभीषण कैसे जान गया वहां की बात? विचार करने की बात है। इसलिए यह यहां – वहां की बात नहीं है। यह साधक के अन्दर क्रिया चल रही है। साधक के अन्तर्जगत में ऐसे तो काम का प्रभाव मन में नहीं रहा – नागपाश कट चुका। लेकिन अभी यह काम रूपी मेघनाद मरा नहीं है। वह चुपचाप गुफा में निकुंभला की पूजा कर रहा है। मतलब काम विषयक आसक्ति गहराई में छिपकर बैठी है। चित्त के अन्तराल में अस्पष्ट रूप से कामदेव अपना काम कर रहा है। साधक को भरोसा हो जाता है कि मैने काम वासना को मन से निकालने में सफलता प्राप्त कर ली है। लेकिन वह गहराई में छिपा है – मौका पाकर पटक देगा। जैसे नारद को पटक दिया था। लेकिन भगवान रक्षा करते हैं, तो बचत हो जाती है। भगवान हमारे अन्दर बैठे है, जीवात्मा के रूप में। अन्तःकरण की गतिविधियों के द्रष्टा हैं। साधक को समय – समय पर आत्मा से संकेत मिलते हैं। अच्छे साधक उन संकेतो को पकड़ लेते हैं, और सुधार करते चलते हैं।

 

जीवात्मा है विभीषण, वह सब जानता है। वही बताता है। जब अन्दर से आत्मिका संकेत मिल गया, तो साधक सचेष्ट होकर लग गया। विवेक – लक्ष्मण, सुरति -सुग्रीव, अनुराग – अंगद सबकी मदद ले लिया। और अब कामरूपी मेघनाद को सदा – सदा के लिए समाप्त कर दिया जाएगा। साधना करने वाले साधक को ऐसे ढंग से अर्थ लेना चाहिए। क्योंकि बाहर की दुनिया से उसका लेना – देना रहता नहीं। वह तो अन्तर्मुखी हो चुका है। बाहर से आंख मूंद लिया है, इसलिए अन्दर देखना है। यही सही अर्थ है। अन्यथा गोस्वामी जी इसका नाम ‘रामचरित मानस’ क्यों रखते? ईश्वर के भजन में जिसका मन लगा है, उसका मन है मानस।

 

~स्वामी अड़गड़ानन्द जी परमहंस।©
विनम्र शुभकामनाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
                                                                                   
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A Concise Spiritual Essence of the “Philosophy, Spirituality, and Science” of the Ramcharitmanas (रामचरित मानस के ‘दर्शन, अध्यात्म, और विज्ञानं’ का संक्षिप्त आध्यात्मिक स्वरूप!)

रामचरित मानस के ‘दर्शन, अध्यात्म, और विज्ञानं’ का संक्षिप्त आध्यात्मिक स्वरूप।
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A concise spiritual essence of the “philosophy, spirituality, and science” of the Ramcharitmanas.

 

मानस में रामकथा का प्रारम्भ और समापन स्थल ‘अयोध्या’ है। मानस का अर्थ है ‘मन के अंतराल में’ और अयोध्या का अर्थ है जहां युद्ध की कोई संभावना न हो अथवा द्वंद और अशांति न हो, कोई अपराध न हो, किसी अपराध के लिए कोई सजा न हो- वह अयोध्या है। इसका एक नाम ‘अवध’ भी है अर्थात जिसका वध न किया जा सके अथवा जिसमें कोई भेद न लगाया जा सके! प्रत्युत्तर बाहर से देखने में ऐसा कुछ दिखाई नही देता है। अंदर की घटने वाली सत्य लीला को बाहरी दृष्टि से देखने पर एक भी सत्य नही मिलेगा। जैसे वहां अशांति भी दिखी, द्वंद भी दिखा, भेदभाव भी दिखाई देता है। लेकिन अंतर्दृष्टि से देखने वाला केवल जो सत्य है वही देखता है। दार्शनिक दृष्टि से जहाँ चित्त की वृत्तियों का पूर्णतः निरोध हो जाय, वह है ‘अयोध्या’ और वही है ‘अवध’। यह एक साधक की अपनी मनः स्थिति है, साधना का उच्च सोपान है। यही योग की परिभाषा भी है – “योग: चिति वृत्ति निरोधः”।

 

The starting and concluding point of the Ramayana in the Manas is “Ayodhya.” The term Manas means “within the mind” or “the depths of the mind,” and Ayodhya means “a place where there is no possibility of conflict, discord, or unrest—where there is no crime, no punishment for any crime.” Another name for it is Awadh, which signifies “that which cannot be destroyed” or “that in which no division can exist.”However, externally, nothing of this is visible. The profound, inner truth of events cannot be perceived with an outward perspective—one would not find a single truth. For instance, unrest, conflict, and discrimination may seem apparent there. But one who sees with an inner vision perceives only the truth.From a philosophical perspective, the state where the fluctuations of the mind are entirely restrained is Ayodhya, and it is also Awadh. This is a mental state of the seeker, the pinnacle of spiritual practice. This aligns with the definition of yog itself: “Yogah Chitta Vritti Nirodhah” (Yog is the cessation of the fluctuations of the mind).

 

अयोध्या का राजा दशरथ है अर्थात जो शरीर रूपी रथ में जुड़े हुए दसों इन्द्रिय रूपी घोड़ों (५ कर्मेन्द्रिय + ५ ज्ञानेन्द्रिय) को अपने वश में रखे। कठोपनिषद कहता है “आत्मानं रथिं विद्धि शरीरं रथमेव तु । बुद्धिं सारथि विद्धि मनः प्रग्रह मेव च ।। इसी आशय को स्पष्ट किया गया है और गीता में – *तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ। पाप्माणं प्रजहि ह्रोंनं ज्ञान विज्ञाननाशनं।।* श्रीकृष्ण अर्जुन को इन्ही इन्द्रियों को वश में करके ‘दशरथ; बनने का उपदेश देते हैं। दशरथ योग मार्ग का पथिक है। योगी के लिए निर्देश है “योग: कर्मः कौशलम”। इसके लिए अनिवार्य शर्त है “समत्वं योग उच्यते”, समत्व दृष्टि की, समत्व के आचार-विचार की समदर्शी और समत्व की स्थिति में ही शान्ति-व्यवस्था कायम है। यह आतंरिक और वाह्य सुख की, प्रसन्नता की अवस्था है। दशरथ की तीन रानियाँ हैं। त्रिगुण रूप हैं (सत, रज और तम) यही परिवर्तन होकर सत कौशल्या भक्तिरूप है, रज सुमित्रा सुमतिरुप है, और तम कैकेयी कर्मरूप हैं। प्रकृति में बुद्धि की अवस्थाएं हैं, चित्त के निरुद्ध के साथ ही गुणों से अतीत होकर रूप परिवर्तित हो जाती है।

 
King Dasharath of Ayodhya symbolizes one who controls the ten horse-like senses (five senses of action and five senses of perception) tied to the chariot of the body. The Katha Upanishad explains this concept:

“Know the self as the rider in the chariot, and the body as the chariot itself. Know the intellect as the charioteer, and the mind as the reins. “This idea is further elucidated in the Bhagavad Gita: “Therefore, O Arjun, first restrain the senses, then destroy this sinful destroyer of knowledge and wisdom.” (Gita 3.41). Lord Krishn advises Arjun to become a “Dasharath”, one who masters the senses. Dasharath is a traveler on the path of yog, and for a yogi, the guidance is clear: “Yog is skill in action.” (Gita 2.50) This requires the essential condition of “equanimity is called yog” (Gita 2.48). A balanced vision, balanced thoughts, and a state of equanimity ensure internal and external harmony and peace. This state is one of true happiness and contentment. Dasharath’s three queens represent the Trigunas (the three fundamental qualities): Kausalya symbolizes Sattva (purity and devotion), Sumitra represents Rajas (activity and wisdom), Kaikeyi embodies Tamas (inertia and action).

In the realm of nature, these are states of intellect. When the mind becomes restrained (Chitta Vritti Nirodha), one transcends the gunas, and their forms transform. Dasharath thus represents the yogic path of mastering the senses and attaining inner equanimity and balance.

 

योगी दशरथ को पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है। एक योगी ही अपने जीवन में चारों पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति का सकता है। दशरथ रूपी साधक ने भी इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त किया था; धर्म – राम जो ज्ञानस्वरूप है, अर्थ – लक्ष्मण जो सभी लक्षणों का धाम है, ज्ञान का ही अर्थस्वरूप है, काम – भरत , मोक्ष – शत्रुघ्न)..
राम हैं – धर्म: – राम धर्म का प्रतीक हैं। “धारयति असौ सह धर्मः” अर्थात हमारे अस्तित्व को धारण करे वह धर्म है. जिससे हमारा अस्तित्व है और जिसके अभाव में हम अपनी पहचान खो देते हैं, वह नियामक तत्व धर्म है। इस परिभाषा के अनुसार हम मानव हैं, इंसान हैं, अतः हमारा धर्म है – ‘मानवता’ को धारण करें। यह मानवधर्म हमारी सोच, विचार, मन और आचरण से निःसृत होता है; इसलिए इसका नाम है – ‘राम’. “रम्यते इति राम:” अर्थात जो हमारे शरीर में, अंग-प्रत्यंग में रम रहा है, वही है ‘राम’; और वही है ‘धर्म’। इस राम के कई रूप हैं, सबकी अपनी अपनी अनुभूतियाँ हैं – “एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट घट लेटा, एक राम का जगत पसारा, एक राम है सबसे न्यारा”। अपने अपने अनुभूत से सब सत्य है। इसमें तर्क का स्थान नही है कि राम यह है, तो वह कैसे..? इसे विज्ञान सहित जानने का जिज्ञासु हर कड़ी का अनुभत करके जान जाता है।

 

The yogi Dasharath attains the fulfillment of Purusharthas (the four goals of life: Dharma, Artha, Kama, and Moksha). Only a yogi, through disciplined practice, can achieve these four objectives in life. The seeker in the form of Dasharath also attained them: Dharma: Represented by Ram, the embodiment of knowledge and righteousness. Artha: Represented by Lakshman, the repository of all attributes and the essence of knowledge. Kama: Represented by Bharat. Moksha: Represented by Shatrughna.

Ram is Dharma: Ram symbolizes Dharma. The word Dharma comes from “धारयति असौ सह धर्मः,” which means that which sustains our existence is Dharma. It is the fundamental principle that upholds our identity, without which we lose ourselves. For humans, this principle is humanity. To live in alignment with humanity is our Dharma.

This human Dharma manifests in our thoughts, beliefs, mind, and behavior; hence it is called Ram. The word Ram signifies “रम्यते इति रामः” — that which pervades and resides within us, in every part of our being. This Ram is our Dharma.

The Many Forms of Ram: Ram exists in various forms, and each is valid based on individual experience: One Ram is the son of Dasharath. Another Ram resides within every being. One Ram is the essence of the entire cosmos. Another Ram is beyond all creation and unique. All these perspectives are true based on one’s realization. Logic and debate have no place here, as each individual experiences Ram differently. A true seeker, driven by curiosity, experiences every link in this chain and understands the interconnectedness of science, spirituality, and existence. Thus, Ram transcends definition, embodying the essence of Dharma as an eternal truth, a guiding principle, and the very soul of existence.

लक्ष्मण अर्थात जिसका लक्ष्य हो ‘राम’, जिसका एक मात्र ध्येय हो ‘राम’, वही है – ‘लक्ष्मण’ । अर्थ का धर्म के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ जाना ही अर्थ की सार्थकता, उसकी उपयोगिता और उसका गौरव है, अर्थ और धर्म का युग्म ही कल्याणकारी, लोकमंगलकारी है। अर्थ का साथ होने पर ही धर्म अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है, लेकिन यह अर्थ उपयोगी तब है जब वह भोग, लिप्सा और विलासिता से दूरी बनाये रहे. भोग तो रहेगा, लेकिन त्यागमय भोग, ‘तेन त्यक्तेन भुन्जीथा’ के रूप में। राम रूपी लक्ष्य को छोडकर जो अन्यत्र न भटके; वह है लक्ष्मण।

 

Lakshman represents one whose sole focus and purpose is Ram. One whose only goal is Ram is truly Lakshman. The true significance, utility, and dignity of Artha (wealth) lie in its inseparable connection with Dharma (righteousness). The union of Artha and Dharma is both beneficial and welfare-oriented, bringing prosperity to individuals and society. Dharma achieves its purpose only when accompanied by Artha, but Artha is meaningful and valuable only when it maintains a distance from indulgence, greed, and luxury. Consumption is inevitable, but it should be rooted in renunciation—aligned with the principle of Tena tyaktena bhunjitha (“Enjoy by renunciation”). Lakshman, thus, symbolizes unwavering focus on the goal represented by Ram, never wandering elsewhere. This steadfast dedication to Ram as the ultimate aim is what defines Lakshman.

भरत अर्थात भाव ही भरत है। काम इसलिए कि भ + रत अर्थात जो भरण, भर्ता और भोक्ता ज्ञान है, उसमें रत अर्थात लीन है, अर्थात जो सतत ज्ञान में लीन हो; वह है भरत. जिसकी सोच, जिसके विचार, जिसके कार्य, जिसकी जीवनशैली ‘काम’ को भी महनीय, नमनीय और वन्दनीय बना दे; वह है – भरत’। काम को हेय दृष्टि से देखने वालों की जो धारणा बदल दे वह है -‘भरत’। काम की सर्वोच्चता का जो दर्शन-दिग़दर्शन करा दे, वह है- ‘भरत’, यह भाव का प्रतीक है।

 

Bharat symbolizes Bhava (emotions, devotion, and essence). He represents Kama (desire) in its highest and purest form. The word Bharat comes from “भ + रत,” where signifies nourishment, sustenance, and enjoyment rooted in knowledge, and रत means being deeply immersed in it. Thus, Bharat is one who is constantly immersed in true knowledge. Bharat transforms desire (Kama) into something noble, admirable, and worthy of reverence. His thoughts, actions, and way of life elevate Kama to a sanctified level, demonstrating how desire, when guided by wisdom and purity, becomes an essential and divine force. Bharat is one who changes the perception of those who view Kama with disdain. He reveals the supreme essence and purpose of Kama as a vital, constructive energy of life. By embodying this principle, Bharat stands as a symbol of profound devotion (Bhava) and the sanctity of all aspects of existence.

शत्रुघ्न सत्संग का स्वरूप है। शास्त्रों ने सत्संग की अपार महिमा मंडन किया है। सत्संग मोक्ष प्रदायनी है।कामना तो सर्वव्यापी है, कामना की पूर्ति न हो तो अशांति और क्रोध की उत्पत्ति होती है। परन्तु जिसकी कोई कामना ही नहीं; वह है – शत्रुघ्न! लक्ष्मण की कामना हैं-‘राम’, भरत की कामना हैं-‘राम’, परन्तु जिसे राम की भी कामना नहीं है, जो वीतरागी है, जिसका अपना नहीं, कोई पराया नहीं, कोई कोई शत्रु नहीं; वही तो ‘शत्रुघ्न’ है। जिसने अपनी समस्त मनोवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लिया है, वही तो है -‘शत्रुघ्न’, यही मोक्ष की स्थति है, जीवन मुक्त की स्थिति है, कैवल्य और निर्वाण की परिकल्पना इसी भाव से ओत-प्रोत है। इसलिए सत्संग से कोई तुलना नही किया जा सकता। यही गीता की शब्दावली में ‘स्थितिप्रज्ञं है। जीवन मुक्त जगत का कार्य तो करता है, क्योकि कार्य से मुक्ति किसी की नहीं हो सकती, लेकिन अब उसका कर्म निष्काम कर्म है, उसका कार्य कर्मयोग है। यह योग की पूर्णता है। यह कर्म, अकर्म, विकर्म इन सभी कोटियों से बहुत ऊपर की अवस्था है।

 

Shatrughna embodies the essence of Satsang (association with truth or virtuous company). The scriptures extol the unparalleled glory of Satsang, describing it as the gateway to liberation (Moksha). Desire is omnipresent, and unfulfilled desires give rise to unrest and anger. However, Shatrughna is one who is devoid of all desires. While Lakshman desires only Ram and Bharat’s sole longing is also for Ram, Shatrughna transcends even the desire for Ram. He is a Vitaragi (one free from all attachments), for whom nothing is personal, no one is an enemy, and who harbors no divisions within. Shatrughna symbolizes complete mastery over the mind and emotions, having conquered all inner tendencies. This state represents ultimate liberation (Moksha), the condition of a Jivanmukta (liberated while living). The ideals of Kaivalya (oneness) and Nirvana (freedom) are deeply ingrained in this concept. In this state, one transcends all dualities and reaches what the Bhagavad Gita calls Sthitaprajna—a person of steady wisdom. A Jivanmukta continues to engage in the world’s activities because no one can escape action, but their actions are now Nishkama Karma (desireless actions). Their work becomes Karma Yog, the culmination of the yogic path. This state of being surpasses all categories of Karma (action), Akarma (inaction), and Vikarma (misaction), representing a realm far beyond them. It is the pinnacle of Yog and the ultimate union of action and liberation. This is why the value of Satsang—the foundation of such realization—is incomparable.

पुरुषार्थी वृत्ति; दानवृत्ति में परिणित है। लोक कल्याणार्थ धर्म और अर्थ (राम और लक्ष्मण) को सुपात्र, ‘विश्वास के मित्र’ विश्वामित्र के हाथों सौप देना ही पुरुषार्थ की उपादेयता और उपयोगिता है। प्रत्येक पुरुषार्थी का यह सामाजिक दायित्व बनता है कि राष्ट्र की प्रगतिशीलता, विकास और उत्थान में बाधक आसुरी – प्रतिगामी प्रवृत्तियों (ताड़का, सुबाहु, मारीच अर्थात तर्क, पूर्वाभ्यास का स्वभाव और अशुध्द मन) से सृजनशील शोध संस्थानों, यज्ञशालाओं, प्रयोगशालाओं की रक्षा करे। तत्पश्चात धनुष यज्ञ की रचना होती है। शिव महायोगी है। साधना के क्षेत्र में, प्रत्येक साधक को इस धनुष को तोडना पड़ता है। लेकिन योग को धारण करने वाला एक योगी ही ‘महायोगी शिव’ के धनुष को तोड़ सकता है, कोई वंचक या ढोंगी नहीं। शिव के इस धनुष का नाम पिनाक है। पिनाक का अर्थ बताया गया है -“रम्भ: पिनाकमिति दण्डस्य” अर्थात रम्भ और पिनाक दंड के नाम हैं। योग और अध्यात्म के क्षेत्र में यह पिनाक ‘मेरुदंड’ का है।

 

The tendencies of a true pursuer (Purusharthi) can degenerate into demonic inclinations (Danavriti) if not guided by higher principles. The ultimate utility and purpose of Purushartha lie in entrusting Dharma (Ram) and Artha (Lakshman) into the capable hands of a deserving and trusted guide, symbolized by Vishwamitra (“a friend of universal trust”). It is the social responsibility of every pursuer of Purushartha to safeguard progressive and developmental initiatives in society. This means protecting creative institutions, research centers, sacrificial grounds, and laboratories (Yagyashalas) from regressive, destructive tendencies. These tendencies are represented by Tadaka (illogical reasoning), Subahu (habitual behavior), and Maricha (impure mind). Only through such protection can society sustain its forward movement and collective welfare.

The Symbolism of the Bow of Shiva: Following this, the Dhanush Yajna (the breaking of Shiva’s bow) takes place. Lord Shiva, the Mahayogi, represents the pinnacle of spiritual practice. In the journey of self-discipline and spiritual progress, every seeker must metaphorically break this bow. However, this act can only be accomplished by a true yogi, one who genuinely embodies the principles of Yog. A deceiver or pretender cannot achieve this feat. The bow of Shiva is called Pinaka, which carries a profound significance. Pinaka is derived from “रम्भः पिनाकमिति दण्डस्य,” where Pinaka refers to the Danda (staff). In the context of yog and spirituality, Pinaka represents the Merudanda (spinal column).

The Merudanda as Pinaka: The Merudanda is the axis of life force (Prana) in the human body and the seat of spiritual energy. To “break the bow of Shiva” means to master the inner discipline required to awaken and balance this energy. Only a genuine seeker, deeply rooted in yogic practices, can achieve this alignment.

Thus, this narrative not only illustrates the societal responsibility of safeguarding righteousness (Dharma) and purpose (Artha) but also emphasizes the personal journey of every spiritual practitioner in transcending obstacles and aligning with the ultimate truth through dedicated practice and self-mastery.

प्रतीक रूप में यही मेरुदंड धनुष है। यहाँ ध्यान एक क्रिया रूप में बताया गया है, क्योकि क्रिया प्रधान है, इसलिए ध्यान को ही धनुष कहा गया है। इसी धनुष की प्रत्यंचा को मूलाधार से खींच-तान कर सहस्रार तक ले जाकर चढाना पड़ता है। जो योगी होगा, जिसे षटचक्र भेदन का भलीभांति ज्ञान होगा, वही प्रत्यंचा चढ़ाकर धनुष को तोड़ सकता है। इस धनुष के निचले शिरे मूलाधार से मेरुदंड के आधार से आज्ञां चक्र की यात्रा के बाद ही साधक रुपी ‘शिव’ का मिलन ‘शक्ति’ से होता है। राम एक योगी हैं, योग विद्या द्वारा तडका – सुबाहु- मारीच रूपी विकार आदि कषाय-कल्मषों को विजित कर सहस्रार तक की यात्रा पूरी की थी। सहस्रार में सहस्रदल कमल खिलने की बात योगशास्त्र में बताई गयी है, इसी सहस्रार रूपी ‘पुष्प वाटिका’ में शिव (राम) का अपनी शक्ति (सीता) से प्रथम साक्षात्कार होता है। यही ‘शिव-शक्ति’ का मिलन भी है। धनुष यज्ञ के माध्यम से ‘राम-सीता विवाह’ की कहानी, ‘शिव-शक्ति’ के मिलन की कहानी है। जो योगी नहीं होगा, वह धनुष को हिला भी नहीं पायेगा. योगबल के अभाव में, शारीरिक बल, धनबल, संख्याबल का कोई महत्त्व नहीं। इसी को संकेतित करते हुए गोस्वामीजी ने लिखा – “भूप सहसदस एकहिं बारा। लगे उठावाहीं टरयी न टारा”।।

 

In symbolic terms, the Merudanda represents the bow. Here, Dhyana (meditation) is described as an action (Kriya), for action is the central focus, and hence Dhyana is referred to as the bow. The string of this bow must be drawn from the Muladhara (root chakra) and stretched to the Sahasrara (crown chakra). Only a true yogi, one who has complete knowledge of the six chakras and their transcendence (Shatchakra Bhedan), can draw the string and break the bow. The journey of the seeker, symbolized as Shiva, begins from the Muladhara and follows a path through the Ajna Chakra (third eye) until the union with Shakti (power). This union of Shiva and Shakti represents the ultimate realization and spiritual union. Ram, as a yogi, completed this journey using the wisdom of yog, overcoming impurities and obstacles (Tadaka, Subahu, Maricha) to reach the Sahasrara. In yogic texts, it is said that in the Sahasrara a Thousand-petaled Lotus blooms, which signifies the full awakening of consciousness. It is here, in the “garden of the thousand-petaled lotus,” that Shiva (Ram) first meets his power (Shakti), symbolized by Sita. This union of Shiva and Shakti is the essence of creation and spiritual fulfillment.

The story of the Ram-Sita marriage through the Dhanush Yajna represents the union of Shiva and Shakti. Only a true yogi, one with the power of yog, can even move the bow, let alone break it. Physical strength, wealth, and numbers hold no significance without the inner strength of yog. This is reflected in the words of Goswami Tulsidas, who wrote: “Bhup sahasadas ekahin bara, lage uthavahiin tarai na tara” Meaning, even if there are thousands of kings, without the right power or understanding, none can move the bow. This verse emphasizes that without the true strength of yog, external power and wealth are of no use.

राजा दशरथ. एक अस्थिर-योगी है। योग का पथ कठिन साधना- पथ है। थोड़ी सी असावधानी भी साधक को उसके स्थान से, उसके प्राप्य और प्राप्ति से भटका सकता है। उसके जीवन में उथल-पुथल मचा सकता है। त्रिगुणरुपी रानियों कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी के प्रति असंतुलन भाव राजा दशरथ को ‘शासक दशरथ’ के स्थान से च्युतकर ‘शासित दशरथ’ बना देता है। फलतः अब वृत्तियों द्वारा ‘शासित दशरथ’ की अभिलाषाएं, आकांक्षाये अधूरी रहतीं है, परिस्थितियाँ विपरीत हो जातीं हैं; शोक – पश्चाताप – दु:ख – अतिशय दु:ख, और अन्त में कष्टदायी मृत्यु। योगपथ में शिथिलता और सहस्रार तक की यात्रा पूरी न कर पाने के कारण ‘तत्त्व साक्षात्कार’ से भी वंचित हो जाना है। राम रूपी योगी का कार्य साधना से है। इस साधना के मुख्यतः चार सोपान हैं -बुद्धि, चित्त, मन और अहंकार। धर्म का कार्य आचरण व्यवस्था, विधि-व्यवस्था, मानवता की स्थापना है। जंगल वह स्थान है जहाँ मानवता का क्षरण हो रहा है। राम वनगमन का यही निहितार्थ है। सत (कौशल्या) को विश्वास है – ‘जो पितु मातु कहेउ बन जाना। तो कानन षत अवध समाना’।। जहाँ धर्म (राम) है; वहीं अयोध्या है, वहीँ अवध है और वहीँ सुशासन है.
प्रथम सोपान – बुद्धि जगत; जहाँ बुद्धि है वहां द्वंद्व है, अनेकता है, तर्क-वितर्क है. जहां द्वंद्व, द्वंद्वों से अतीत हो जाय, तर्क शांत हो जाय, मानसिक सामाजिक कलह न हो, वह है – अयोध्या। अतः अयोध्या नगरी में या अयोध्या काण्ड में घटित समस्त ‘राम लीलाएं’ बुद्धि की लीला है।

 

King Dashrath is symbolized as an unstable yogi. The path of yog is one of intense discipline, and even a slight lapse in focus can lead the practitioner away from their goal, disrupting their progress and causing confusion. In Dashrath’s life, an imbalance towards his three queens—Kausalya, Sumitra, and Kaikeyi—leads him from being Shasak Dashrath (the ruler) to Shasit Dashrath (the ruled). This shift results in unfulfilled desires, opposition in circumstances, sorrow, regret, and eventually, a painful death. The same can be said about a practitioner on the path of yog: a lapse in concentration or failure to complete the journey to Sahasrara (the crown chakra) leads to missing the realization of truth (Tattva Sakshatkar). The practitioner’s desires and aspirations remain unfulfilled, much like Dashrath’s unachieved goals. The role of Ram (the yogi) is to focus on the practice of yog, which progresses through four key stages: Buddhi (intellect), Chitta (mind), Manas (consciousness), and Ahankar (ego). The ultimate aim of yog is the establishment of righteousness (Dharma), order (Vidhi), and humanity in the world. The forest represents a place where humanity is eroding, where principles and order have collapsed. The exile of Ram (Ram Vanvas) signifies this symbolic journey into the wilderness, where the loss of righteousness (Dharma) must be confronted. Kausalya, in her wisdom, expresses her belief in the righteousness of Ram’s exile: “Jo Pitu Maatu Kaheu Ban Jaana, To Kaanaan Shat Avadh Samaana”, meaning if parents command, the child must obey, and thus the wilderness becomes as sacred as Ayodhya. This reflects the understanding that wherever Dharma (represented by Ram) exists, that is where Ayodhya is, and that is where good governance and righteous rule are found.

The First Step: Buddhi (Intellect) The world of Buddhi is full of dualities, contradictions, and debates. Where there is Buddhi, there is also conflict and argument. However, once one transcends these dualities and the conflicts of reasoning, achieving mental and social peace, that state is Ayodhya. Therefore, the Ram Leela in the Ayodhya Kanda (the Ayodhya episode) is a divine play of intellect, where Ram, as an embodiment of pure intellect, shows how to transcend worldly conflicts and arrive at a state of harmony and order. In essence, the journey of King Dasharath and Ram symbolizes the process of spiritual awakening: overcoming internal conflict, fulfilling one’s duties, and ultimately achieving harmony with the truth of existence.

द्वितीय सोपान – चित्त जगत; चित्त स्मृतियों और यादों का भंडारागार है। रामकथा में यही ‘चित्रकूट’ है, चित्त जहां कूटस्थ हो जाय, वही चित्रकूट है। चित्रकूट में घटित समस्त ‘राम लीलाएं’ चित्त की लीला है, हलचल है, भाव तरंगों का बनना, मिटना, फिर बनना और फिर उठना ….यहाँ इसी की प्रधानता है। चित्त की पांच अवस्थाएं हैं – “क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तं एकाग्रं निरुद्धमिती चित्त भूमयः” अर्थात बुद्धि अब बुद्धि न रह जाय, एकाग्रता सध जाय, बुद्धि में किसी विचारों का कोई हलचल न हो, निर्णय की संभावना न बने, और चित्त का मिट जाना।

 

The Second Step: Chitta (Consciousness): The Chitta is the storehouse of memories and impressions. In the Ram Katha, this is represented by Chitrakoot, where the Chitta becomes still and stable. Chitrakoot is the place where the mind is freed from the turbulence of past memories, where the Chitta reaches a state of peace and equilibrium. In Chitrakoot, the various Ram Leelas (divine plays) are the expressions of the Chitta—its movements, its waves of emotions, its transformations. The play of the mind, with its ups and downs, the arising and dissolving of thoughts and feelings, is symbolized here. The primary theme in Chitrakoot is the fluctuation of emotions, the continual rise and fall of mental states. The Chitta undergoes five stages: Kshiptam – Restless or scattered mind, Muddham – Ignorant or dull mind, Vikshiptam – Distracted or disturbed mind, Ekagram – Focused or concentrated mind and Niruddham – Completely controlled or suppressed mind. This progression signifies that the mind must evolve from its scattered, distracted, and restless state into one of concentration, where there is no disturbance, and no further decisions or distractions arise. The ultimate stage is when the Chitta dissolves, meaning the cessation of all mental activity and the achievement of perfect stillness. Thus, the Chitrakoot episode in the Ram Katha is a profound metaphor for this mental journey, where the seeker (symbolized by Ram) experiences and overcomes the fluctuations of the mind, moving towards a state of complete inner peace and control.

तृतीय सोपान मानसिक जगत है; मन अत्यंत चंचल है। यहाँ कामनाएं हिलोरें मारती रहती हैं, उचित-अनुचित भी समझ में नहीं आता, बौद्धिक जगत के समाधान अस्थाई लगाने लगते हैं, कुछ समझ में नहीं आता, जो होता है, वह दीखता नहीं, जो दिखाई देता है, उसमे सच्चाई नहीं, पूरी तरह मृग मरीचिका की स्थिति है यहाँ। असंभव ‘कंचनमृग भी’ वास्तविक लगने लगता है. बुद्धि मोहित हो जाती है. पंचवटी ही सामूहिक रूप से मन है। यही मन में प्रकृति रूप सूर्पनखा कामना को जागृत करने का प्रयास करती है। पंचवटी में घटित समस्त ‘राम लीलाएं’ मानसिक जगत की लीला है। इसी मानसिक जगत में सचेत और संयमित रहना है। मन को यदि नियंत्रित न किया गया तो विश्वामित्र की तरह अर्जित तपस्या गयी, सूर्पनखा की तरह नाक कान (मर्यादा) गयी, स्वयं राम की भी शक्ति (सीता) गयी।

The Third Step: Mental World (Manas): The Manas (mind) is extremely restless, and it is here that desires continuously surge, making it difficult to distinguish between what is appropriate and inappropriate. The solutions derived from the intellectual world seem temporary, and nothing appears to make sense. What happens is often not visible, and what is visible lacks truth. The state is akin to a mirage, where even the impossible, like the golden deer (Kanchan Mrig), starts appearing real. The intellect becomes deluded in this state. In this mental world, the mind is symbolized by Panchavati—a place of collective desires and impulses. Within Panchavati, Surpanakha (representing desire) awakens the mind to its cravings and emotions. The Ram Leelas that occur in Panchavati are a reflection of the mental world, where the battle between control and indulgence takes place. The challenge here is to remain conscious and disciplined in the midst of this mental turbulence. If the mind is not controlled, one risks losing everything, much like Vishwamitra’s tapasya being lost, Surpanakha’s disfigurement (symbolizing a loss of boundaries or self-discipline), and even the loss of Ram’s strength (Sita). The mind must be restrained, as failure to do so leads to a loss of direction and purpose, allowing the chaos of unfulfilled desires to govern. This third stage underscores the importance of mental discipline in the spiritual journey. Just as Ram must deal with the mental distractions represented by Panchavati, a seeker must control the Manas to achieve true spiritual success.

चतुर्थ सोपान अहंकार जगत; अतिशय सम्पन्नता की प्राप्ति पर अहंकार आता है। इस अहंकार के विविध रूप हैं – शक्ति का अहंकार, धन का अहंकार, विद्या का अहंकार, बल का अहंकार, सत्ता का अहंकार,…..यहीं साधक के अपने अन्दर के रावण की पहचान कर उसे विजित करना है।जिसका अपनी इन्द्रियों पर अधिकार न हो, जिसकी दसों इन्द्रियां, उन्मुक्त हों; वह है – ‘रावण’। अपनी खोई हुई शक्ति और रावण पर विजय प्राप्ति का मात्र एक उपाय है -‘ईश्वराधना और पूजा’।
आगे रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग स्थापना। धर्मकार्य में पूजन का अर्थ है – ‘तत्त्व साक्षात्कार’. सिद्धांतों की खोज करना, अशिक्षितों को, नए साधकों को सिद्धांतो से परिचित करना, उन्हें सबल, अभय और कर्तव्य परायण बनाना। वेदांत कहता है -“जन्माद्यस्य यतः”. अर्थात जिससे इस जगत की उत्पत्ति, जिसमे इसकी स्थिति और जिसमे प्रलय होता है; वह सिद्धांत जानने योग्य है? क्या यह प्रश्न मात्र दर्शन और अध्यात्म का ही है? क्या यह विज्ञानं का प्रश्न नहीं है? अब यहाँ इस विन्दु पर यह कार्य अध्यात्म और विज्ञानं दोनों के लिए सामान रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है।राम ने गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र के साथ- साथ अन्य ऋषियों से वेद-वेदांग की शिक्षा ग्रहण की थी। वे जानते हैं कि इस ब्रह्माण्ड का मूल स्रोत (नाभिक) क्या है? यजुर्वेद जहाँ “वेदाहमस्य भुवनस्य नाभिम” कहकर इसे अंकित किया है, वहीँ गीता ने “सर्वभूतानाम बीजं” तथा “प्रभवः प्रलयः स्थान निधानं बीजं अव्ययम” कहकर बताया है. वहीँ विज्ञान ने भी इसे किसी थियरी द्वारा विश्लेषित किया है। राम भी यही कार्य एक योग्य शिक्षक कि तरह निरक्षरों को अर्थात वानर-भालू को, वन नरों को विज्ञान-दर्शन पढ़ा रहे हैं। राम ने वहां उपस्थित सभी सहयोगियों को समझाया – सृजन और प्रलय प्रकृति का शाश्वत नियम है। दृष्टिगत यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अत्यंत घनीभूत होकर एक विन्दु रूप में विलीन हो जाती है। इसलिए अहंकारी रावण को परास्त करने के लिए इस ज्ञान सिद्धांत की, इस ब्रह्म सत्ता की आराधना-पूजा करना सर्वथा उचित ही है, श्रेयष्कर है। “लयं गच्छति भूतानि संहारे भूतानि निखिलं यतः। सृष्टि काले पुनः सृष्टि: तस्माद लिंगामुदाह्रितम।। अर्थात विन्दु की आराधना, विन्दु की पूजा, विन्दु में सिन्धु समाहित हो जाने का दर्शन वानरों की समझ में नहीं आया।
तब राम ने मुट्ठी भर रेत हाथ में लेकर गोलाकार पिंड बनाया, मंत्रोच्चार सहित स्थापित किया. राम समझाते रहे, यही पिंड शिवलिंग है, परमात्मा है… ब्रह्मा का प्रतीक है. -“मूले ब्रह्मा तथा मध्ये विष्णु त्रिभुवानेश्वार:। रुद्रोपरी महादेव: प्राणवाख्य: सदाशिवः।। ” वानरों की समझ में अब भी कुछ नहीं आया। तब राम ने पिंड को अंडाकार बनाया, उसके नीचे अर्घा (जलहरी) बनाया, और अपनी व्याख्या को और सरल किया। यह अंडाकार पिंड ‘ब्रह्माण्ड पुरुष सिद्धांत’ है, ब्रह्म है, तथा यह अर्घा (जलहरी) ‘ब्रह्माण्ड नारी सिद्धांत’ है, प्रकृति है। “प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी” अर्थात पहले पुरुष और फिर प्रकृति! दिखने में रूप से अलग अलग है, किन्तु दोनों में अभिन्नता है। युग्म रूप में यही ‘शिवशक्ति’, सिद्धांत है, यही ‘अर्द्ध- नारीश्वर’ है, यही सृजनहार है। यह परम तत्त्व है, इसे न केवल अध्यात्म तक सिमित किया जा सकता है न केवल विज्ञान तक। यह असीम है, कल्याणकारी ‘शिवम्’ है. इसलिए यह न पुलिंग है, न स्त्रीलिंग और न ही नपुंसक लिंग। यह मात्र ‘ब्रह्माण्ड लिंग’ है। यही राम को सर्व प्रिय है -“लिंग थापि विधिवत करि पूजा। शिव समान प्रिय मोहि न दूजा” ।। विधिवत पूजा का अर्थ है, विधि अनुसार करना, उसके सिद्धांत को जानना, उसके अनुप्रयोग को जानना। इस तत्त्व दर्शन ने वानरों के अंतर के भय को समाप्त कर दिया, ज्ञानचक्षु खुल जाने से अहंकार रूपी लंका पर विजय संभव हो पाया।
हर योगी के मानस में चलने वाली यही रामकथा का संक्षिप्त विज्ञान-दर्शन है। लंका विजय के पश्चात राम, अयोध्या नरेश हैं, दशरथ रूप हैं क्योकि “रामराज्य बैठे त्रैलोका हर्षित भये गए सब शोका………..”. इसी में योग की, अध्यात्म की, विज्ञान की पूर्णता भी है।

The Fourth Step: Ego World (Ahamkara): When a person achieves great success, ego inevitably emerges in various forms—ego of power, wealth, knowledge, strength, or authority. It is at this stage that the seeker must confront and defeat their inner Ravana. Ravana symbolizes the uncontrolled senses. One who does not have control over the ten senses, whose senses are completely free, is Ravana. The only remedy for this lost power and to conquer Ravana is Ishwaradna (devotional worship) and prayer.

This brings us to Rameshwaram, the establishment of the Jyotirlinga. Worship in the realm of Dharma is the path to Tattva Sakshatkar (realization of truth). The search for principles, teaching new seekers and the unlearned about the fundamentals of existence, making them strong, fearless, and committed, is essential. The Vedanta says “Janmadyasya Yatah,” meaning the origin of the world, its sustenance, and dissolution is the foundational knowledge. This is not merely a philosophical question, but also a scientific one. The importance of Tattva is recognized in both spirituality and science.

Ram, who learned from sages like Vashishtha and Vishwamitra, understood the fundamental source (nucleus) of the universe. The Yajurveda states, “Vedaham asya bhuvanasya nabhim,” the origin of the world, and Gita says, “Sarvabhutanam bijam,” the seed of all beings. Science too has analyzed this origin in various theories. Ram, as a wise teacher, imparts this knowledge to the uneducated beings around him—monkeys, bears, and forest dwellers. He teaches them that creation and dissolution are the eternal laws of nature. He explains that the entire universe condenses into a singular point at the end of creation. Therefore, to defeat the egoistic Ravana, it is essential to worship and seek this knowledge of the Brahman (supreme consciousness).

The verse “Layam gacchati bhutani sanhare bhutani nikhilam yatah” means that everything ultimately dissolves into one point, and from this point, creation begins anew. Ravana, being the embodiment of ego, must be overcome by recognizing and worshiping this essence. Ram explains this by forming a small spherical lump of sand, chanting mantras, and telling the monkeys that this represents the Shivalinga, a symbol of Brahman.

The Linga symbolizes both the male and female principles—Purusha (masculine principle) and Prakriti (feminine principle). Ram explains that while the form may seem different, both are inseparably one. The union of Shiva and Shakti represents the ultimate principle of creation, which is beyond gender. This is the Ardhanarishvara form, symbolizing the inseparability of the divine masculine and feminine energies.

This spiritual knowledge dispels the fears within the monkeys, as their minds open to the realization that ego (represented by Lanka) can be conquered through knowledge and devotion. The defeat of Ravana becomes possible when ego is transcended, and true knowledge dawns.

The essence of this story in every yogi’s mind reflects the journey of self-realization. After the victory over Lanka, Ram becomes the king of Ayodhya, representing the ideal ruler in the form of Dashrath. This is the complete realization of the paths of yog, spirituality, and science, culminating in a state where there is no sorrow, and all beings are happy in the ideal reign of Ram Rajya.

~स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी परमहंस।©

 

विनम्र शुभकामनाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
                                                                                           
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बुद्धिहीन रावण! राम क्या मनुष्य हैं………..?????

बुद्धिहीन रावण! राम क्या मनुष्य हैं?
रामनवमी के पुनीत अवसर पर महापुरुषों का विशिष्ट चिंतन..!!
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जद्यपि ब्रह्म अखण्ड अनन्ता।
अनुभव गम्य भजहिं जेहि सन्ता।।
(मानस, 3/12/12)
योगी अनुभव में रमण करते हैं। अनुभव भव से अतीत एक जागृति है, विज्ञान है; जिसके द्वारा परमात्मा के निर्देश प्राप्त होते रहते हैं। वही राम हैं जो पहले संचालक, पथ-प्रदर्शक के रूप में आते हैं। विवेकरूपी लक्ष्मण, भावरूपी भरत, सत्संगरूपी शत्रुघ्न सभी एक दूसरे के पूरक हैं। प्रारंभ में संकेत, इष्ट का निर्देश बहुत संक्षिप्त एवं क्षीण रहता है। राम बालक रहते हैं। क्रमश: उत्थान होते-होते वह योगरूपी जनकपुर में पहुँचते हैं। जनक वह है जिसने जना, जन्म दिया। सृष्टि में शरीरों का जन्म माता-पिता से होता है, किंतु निज स्वरूप का दिग्दर्शन एवं जन्म योग से ही होता है। योग से स्वरूप की अनुभूति होती है इसलिए वह जनक है। योगरूपी जनकपुर- जनक एकवचन है किंतु यहाँ जनकपुर है; क्योंकि एकमात्र योग से ही अनंत आत्माओं ने अपना स्वरूप पाया है और भविष्य में भी योग ही माध्यम है। योग का आश्रय पाकर राम शक्ति से संयुक्त हो जाते हैं, आसुरी प्रवृत्तियों का शमन करके सर्वव्यापक हो जाते हैं और फिर रामराज्य की स्थिति चराचर पर छा जाती है। योग की पकड़ आते ही अनुभव जागृत हो उठते हैं।जागृतिरूपी जयमाला मिलती है और अनुभवरूपी राम शक्तिरुपी सीता से संयुक्त हो जाते हैं। यह योग की प्रवेशिका है।
शनै:-शनै: राम शक्ति के साथ आगे बढ़ते हैं, व्यवधान आते हैं और जब मोह का समूल अंत हो जाता है तो अमृततत्व की प्राप्ति हो जाती है, सुधावृष्टि होती है। अमृत कोई घोल पदार्थ नहीं है कि पानी की तरह वर्षा हो। अंगद ने रावण से कहा-
राम मनुज कस रे सठ बंगा। धन्वी कामु नदी पुनि गंगा।
पसु सुरधेनु कल्पतरू रूखा। अन्न दान अरू रस पीयूषा।।
(मानस, 6/25/5-6)
बुद्धिहीन रावण! राम क्या मनुष्य हैं? गंगा क्या किसी नदी का नाम है? कामधेनु क्या किसी पशु का नाम है? काम क्या कोई धनुर्धर है? अमृत क्या कोई घोल पदार्थ है कि उठाकर पी लोगे या छिड़क दोगे? जब अमृत घोल पदार्थ नहीं है तो है क्या? वस्तुत: मृत नाशवान् को कहते हैं, जो मरणधर्मा हो। अमृत वह है जो अक्षय है, अक्षर है, शाश्वत है। परात्पर ब्रह्म ही अमृत है, जहाँ पहुँचकर यह मरणधर्मा मनुष्य पुनर्जन्म का अतिक्रमण कर जाता है।
उस अमृततत्व के संचार के साथ ही क्रमश: उत्थान करते-करते भक्त खो जाता है और राम ही शेष बचते हैं।
~स्वामी श्रीअड़गड़नन्दजी परमहंस।©
विनयावनत,
~मृत्युञ्जयानन्द।
                                                                             🙇🙇🙇🙇🙇
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प्रभु श्री राम का आध्यात्मिक स्वरूप…….!!!!!

प्रभु श्री राम का आध्यात्मिक स्वरूप।।
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अंतःकरण में प्रस्फुटित अनुभवगम्य अनुभूति का एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण।।
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सती पार्वती की भी यही जिज्ञासा थी। उनका एक जन्म तो संशय में चला गया कि नर-तन धारण करनेवाले राम भगवान कैसे हो सकते हैं? दूसरे जन्म में उन्होंने अथक परिश्रम किया, घोर तपस्या की, भगवान शंकर को पुनः प्राप्त किया और तत्पश्चात् सत्संग आरम्भ हुआ। पिछले जन्म में प्रश्न जहाँ से छूटा था, सत्संग वहीं से प्रारम्भ हुआ। शैलजा ने प्रश्न रखा कि, राम भूप-सुत कैसे हुए? राम का स्वरूप क्या है? नर भगवान कैसे हो सकता है? शंकरजी ने पहले तो बहुत डाँटा, बोले-
कहहिं सुनहिं अस अधम नर, ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाखंडी हरि पद बिमुख, जानहिं झूठ न साच।। (मानस, 1/114)
ऐसा अधम नर कहते हैं जो मोहरूपी पिशाच से ग्रसे हैं। जिनके हृदय में विषयरूपी काई लगी है, वे ही ऐसा कहते हैं। गिरिजा! तूने वेद-असम्मत वाणी कही है, यद्यपि तुम्हारा भाव अच्छा है। तत्पश्चात् उन्होंने उत्तर देना आरम्भ किया तो राम का स्वरूप बताया-
बिषय करन सुर जीव समेता।
सकल एक तें एक सचेता।।
सब कर परम प्रकासक जोई।
राम अनादि अवधपति सोई।। (मानस, 1/116/5-6)
अर्थात् विषय, विषयों को करनेवाली इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के देवता और जीवात्मा उत्तरोत्तर एक दूसरे के सहयोग से सचेत होते हैं, एक दूसरे के सहयोग से जागृत होते हैं और इन सबको प्रकाश देनेवाली जो मूल सत्ता है, वही है राम। इन सबका जो परम प्रकाशक है वही अवधपति राम हैं। वास्तव में इन्द्रियाँ एवं मन तो चराचर में सर्वत्र पाया जाता है इसीलिए ‘जगत प्रकास्य प्रकासक रामू।’ (मानस, 1/116/7)- जगत् प्रकाश्य है और राम प्रकाशक हैं। वे मायाधीश हैं, ज्ञान और गुण के धाम हैं। राम तो सर्वत्र एक जीवनी शक्ति के रूप में हैं तभी तो पेड़ हरा-भरा है। यही उनका प्रकाश है। गिरिजा को भ्रम हुआ था कि राम भगवान कैसे हो सकते हैं?- इसलिए शंकरजी कहते हैं-
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई।
गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई।। (मानस, 1/117/3)
ऐसा भ्रम जिनकी कृपा से मिट जाता है वही कृपालु रघुराई हैं। वह भ्रम जब कभी किसी का मिटा है तो अनुभव से मिटा है। जब कभी किसी ऋषि-महर्षि ने उस भ्रम का निवारण पाया तो अनुभव के द्वारा ही पाया है। महर्षि मार्कण्डेय ने अनुभव में महाप्रलय की लीला देखी और अन्त में प्रलय के बाद भी उस शाश्वत सत्ता को जीवित पाया। उसके स्पर्श के साथ ही महर्षि का भ्रम दूर हो गया। कागभुशुण्डि ने हजारों-लाखों वर्ष तक भगवान के उदर में पर्यटन किया। वहाँ राम-अवतार भी देखा। अपने आश्रम को देखा। विविध रूप में भरतादिक भ्राताओं को देखा-
भिन्न भिन्न मैं दीख सबु अति बिचित्र हरिजान।
अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन।। (मानस, 7/81 क)
अगणित भुवनों में भटका। सभी शक्तियाँ तो भिन्न-भिन्न रूप में थीं किन्तु राम को दूसरे प्रकार का नहीं देखा। भरत दूसरे प्रकार के थे, लक्ष्मण दूसरे प्रकार के थे, माता कौशल्या दूसरे प्रकार की थीं, लेकिन राम ठीक उसी प्रकार के थे- जैसा बाहर देखा था। वह सदैव एकरस रहनेवाली सत्ता है। सुनने से तो ऐसा प्रतीत होता है कि महर्षि कागभुशुण्डि ने भगवान के पेट के अन्दर प्रवेश कर यह सब देखा; लेकिन नहीं, यह भी एक अनुभव था-
उभय घरी महँ मैं सब देखा।
भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा।। (मानस, 7/81/8)
अगणित तो वे नगर देखते रहे, लोक-परलोक देखते रहे, बहुत-सा समय अपने आश्रम में भी बिताया। युग पर युग बीतते गये और अन्त में निर्णय देते हैं, ‘उभय घरी’- दो ही घड़ी में मैंने सब कुछ देखा। सिद्ध है कि वह एक अनुभव था। चिन्तन में आनेवाला, ध्यान में मिलनेवाला, इष्ट से प्रसारित एक ‘रील’ थी। समाधिजन्य एक दृश्य था। ऋतम्भरा प्रज्ञा की अनुभूति थी। जब ऐसा भ्रम होता है कि राम सगुण हैं या निर्गुण हैं? कहाँ पैदा होते हैं? कैसे रहते हैं? ऐसा भ्रम जिस युक्ति से दूर हो जाता है, बस वही राम हैं। ‘जासु कृपाँ अस भ्रम’- जैसा कि तुमको हुआ, ‘मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई।।’- अर्थात् विज्ञानरूपी राम।
सोइ सच्चिदानन्द घन रामा।
अज बिज्ञान रूप बल धामा।। (मानस, 7/71/3)
राम कैसे हैं? उनका स्वरूप कैसा है? विज्ञानरूपी उन राम का कार्य-कलाप कैसा है? कैसे वे चलते हैं? कैसे युद्ध कराते हैं? कैसे भक्त के साथ रहते हैं? शंकर जी बताते हैं-
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।
कर बिनु करम करइ बिधि नाना।।
आनन रहित सकल रस भोगी।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।
तन बिनु परस नयन बिनु देखा।
गहइ घ्रान बिनु बास असेषा।।
असि सब भाँति अलौकिक करनी।
महिमा जासु जाइ नहिं बरनी।। (मानस, 1/117/5-8)
वह बिना कान के सुनता है, बिना आँख के देखता है, बिना पैर के चलता है, बिना हाथ के सम्पूर्ण कृत्य करता है। इस प्रकार राम की करनी सब तरह से अलौकिक है। सिद्ध है कि वह अनुभवगम्य है, अर्थात् विज्ञानरूपी राम- ऐसा शंकरजी का निर्णय है।
राम का जन्म भी विचारणीय है-
ब्यापक ब्रह्म निरंजन, निर्गुन बिगत बिनोद।
सो अज प्रेम भगति बस, कौसल्या के गोद।। (मानस, 1/198)
जो कभी व्यक्त नहीं होता, बिना पैरों के चलता है, बिना आँखों के देखता है, बिना शरीर के शरीरधारी है, वही अजन्मा, अव्यक्त, शाश्वत राम प्रेमरूपी भक्ति के द्वारा कौशल्या की गोद में आता है। वस्तुतः प्रेममयी भक्ति का ही दूसरा नाम ‘कौशल्या’ है। अतः ‘भक्तिरूपी कौशल्या’। कोश कहते हैं सम्पत्ति के केन्द्र को। आत्मिक सम्पत्ति ही स्थिर सम्पत्ति है। उस स्थिर सम्पत्ति का संग्रह भक्ति में है इसलिए उसका नाम कौशल्या है।
इसी क्रम में राम के नामकरण पर भी विचार कीजिए। जब भगवान राम इत्यादि का जन्म हो गया तो दशरथ हर्षोल्लास के साथ गुरु वशिष्ठ के पास पहुँचे कि इनका नामकरण किया जाय। वशिष्ठ ने कहा- इनके नाम अनेक और अनन्त हैं, गिने नहीं जा सकते; किन्तु व्यवहार में सम्बोधन के लिए उन्होंने चारों पुत्रों का क्रमशः नाम दिया और यह भी कहा कि ये साधारण पुत्र नहीं हैं बल्कि वेद के तत्त्व हैं-
धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी।
बेद तत्व नृप तव सुत चारी।। (मानस, 1/197/1)
हृदय में विचार करके वशिष्ठ ने नाम रखा और अन्त में निर्णय दिया कि राजन्! ये साधारण पुरुष नहीं हैं। ये चारों सुत वेद के तत्त्व हैं। परमतत्त्व, जो विदित नहीं है, उसको भी विदित करा देनेवाला वेद है, उसके तत्त्व हैं। अब चारों भाइयों का नामकरण देखें-
बिस्व भरन पोषन कर जोई।
ताकर नाम भरत अस होई।। (मानस, 1/196/7)
जो विश्व के भरण-पोषण की क्षमता रखते हैं, उनका नाम भरत है। चारों भाइयों में भरण-पोषण की क्षमता यदि किसी में थी तो भरत में थी, इसीलिए उनका नाम भरत पड़ा। किन्तु कार्यक्षेत्र में वैसा लक्षण नहीं पाया जाता, जैसा वशिष्ठजी ने कहा। जब माता कैकेयी के आदेश से राम वनवास के लिए चले गये तो बिलखते हुए भरत राम के पीछे चित्रकूट पहुँचे। लोगों ने भरत से राज्य करने का आग्रह किया; किन्तु भरत ने उसे नहीं स्वीकारा। राम ने कहा- अच्छा, कम से कम चौदह वर्षों तक ही प्रजा का पालन-पोषण करो; किन्तु भरत खड़ाऊँ पर भार छोड़कर नन्दिग्राम की एक कन्दरा में जाकर बैठ गये। चौदह वर्षों तक बाहर ही नहीं निकले। विश्व-पोषण तो गया भाड़ में, मात्र अयोध्या के भरण-पोषण का जहाँ प्रश्न आया, भरत कन्दरा में बैठ गये; उलटकर देखा तक नहीं। संयोग से मंत्री अच्छे और स्वामिभक्त थे अतः व्यवस्था चलती रही। किन्तु नामकरण जिस विशेष गुण के आधार पर हुआ था, व्यवहार में वैसा नहीं पाया गया। दूसरे पुत्र का नामकरण देखें-
जाके सुमिरन तें रिपु नासा।
नाम सत्रुहन बेद प्रकासा।। (मानस, 1/196/8)
शत्रुओं का नाश करने की क्षमता थी तो एकमात्र शत्रुघ्न में थी। उनके स्मरण मात्र से ही शत्रुओं का नाश हो जाता है इसीलिए तो उनका नाम शत्रुघ्न पड़ा। लेकिन ‘मानस’ के अवलोकन से ज्ञात होता है कि राम लड़े, लक्ष्मण लड़े, आवश्यकता पड़ने पर भरत ने भी एक बाण हनुमान को मारा, लेकिन शत्रुघ्न ने तो एक चुहिया तक नहीं मारी। जबकि नामकरण में, चारों भाइयों में शत्रु-दमन की क्षमता थी तो एकमात्र शत्रुघ्न में थी। हाँ, कुबरी को शत्रुघ्न ने लात अवश्य मारी थी; क्योंकि वह बेचारी घूमकर मुक्का भी नहीं चला सकती थी। शत्रुघ्न ने देखा कि वह कुछ कर नहीं पायेगी फिर भी एक लात पीछे से लगायी, तभी तो कुबड़ पर लगी। यही उनका पराक्रम था; किन्तु कार्यक्षेत्र में ऐसा पाया नहीं जाता। इसी प्रकार लक्ष्मण के नामकरण का आधार देखें-
लच्छन धाम राम प्रिय, सकल जगत आधार।
गुरु बसिष्ट तेहि राखा, लछिमन नाम उदार।। (मानस, 1/197)
जो लक्षणों के धाम हैं, जगत् के आधार हैं, राम के प्रिय हैं; गुरु वशिष्ठ ने उनका नाम लक्ष्मण रखा। वे शुभ लक्षणों के धाम थे। एक भी दुर्गुण नहीं था उनमें, इसीलिए लक्ष्मण कहलाये। जबकि लक्ष्मण महान् क्रोधी थे। क्रोध एक दुर्गुण है। यद्यपि भरत सहृदयता के साथ राम को मनाने जा रहे थे, किन्तु लक्ष्मण उन्हें आते देखकर धनुष उठाकर छलाँग भरने लगे। लक्ष्मण का क्रोधी स्वभाव प्रसिद्ध है। धनुर्भंग, वनवास, किष्किन्धा, लंका सर्वत्र उनका यह स्वरूप दिखायी देता है फिर भी वे लक्षणों के धाम कहे गये। जब सीता चोरी चली गईं, तो ‘लछिमनहूँ यह मरमु न जाना।’ (मानस, 3/23/5) केवट मर्म जान गया था; किन्तु ‘लच्छन धाम’ नहीं जान सके। युद्ध में मेघनाद से सामना होने पर, यह जानते हुए भी कि शत्रु कमजोर नहीं है उसका प्रबल शस्त्र सामने से चला आ रहा है, लक्ष्मण सीना तानकर मूर्च्छित हो जाते हैं। लक्ष्मण एँड़े अवश्य हैं, लेकिन जहाँ तक लक्षण का प्रश्न है, वे कोरे दीखते हैं। लक्षण तो तब होता जब वे शत्रु के इरादों को पहले ही भाँप जाते। ‘कहबि न तात लखन लरिकाई।’ (मानस, 2/151/8)- साथ-साथ पैदा हुए; किन्तु राम के और उनके स्वभाव में कितना अन्तर था। चारों भाइयों में सम्पूर्ण शुभ गुण लक्ष्मण में थे; किन्तु व्यवहार में वैसा नहीं पाया जाता। अब, राम के नामकरण पर दृष्टिपात करें-
जो आनन्द सिन्धु सुखरासी।
सीकर तें त्रैलोक सुपासी।। (मानस, 1/196/5)
वे आनन्द के समुद्र हैं, सुख की राशि हैं, अपनी एक बूँद से त्रैलोक्य को सुपास प्रदान करनेवाले हैं-
सो सुखधाम राम अस नामा।
अखिल लोकदायक बिश्रामा।। (मानस, 1/196/6)
वे सुख के धाम हैं, इसलिये उनका नाम राम है। वे सम्पूर्ण लोकों को विश्राम प्रदान करनेवाले हैं। राम आनन्द के समुद्र, सुख के धाम तो थे जिन्हें दुःख स्पर्श ही नहीं करता था; लेकिन यदि राम का जीवनवृत्त देखा जाय तो वे सुख-शान्ति से कभी नहीं रहे। बचपन में ही उन्हें विश्वामित्र ले गये। ले जाकर ताड़का से लड़ा दिया। इसके उपरान्त शादी-विवाह हुआ, कुछ सफलता मिली, राजपाट के सुख का समय आया तो मन्थरा गले पड़ गयी। राम को राज्य की जगह चौदह वर्ष का वनवास मिला। वनवास में किसी तरह समय काट रहे थे कि सीता चोरी चली गयी, फिर तो ‘हाय मृगलोचनी! हाय गजगामिनी! हाय सीते! मुझे छोड़कर कहाँ चली गई।’ ‘लता तरु पाती’ से पूछते-बिलखते रहे। नारद को उनकी दशा देखकर महान् पश्चाताप हो रहा था कि मेरे शाप के कारण राम दुःखों का बोझ सहन कर रहे हैं। यह बात अलग है कि राम ने हँसते हुए दुःख झेला, किन्तु थे तो दुःख ही।
राम ने सेना का संगठन किया, रावण को जीता। सीता सहित अवध के सिंहासन पर आसीन हुए, तो एक धोबी ने आक्षेप कर दिया। संयोग से धोबी की पत्नी रात भर किसी के यहाँ उत्सव के कारण रुक गई। धोबी बोला- मैं राम नहीं हूँ जो दूसरों के घर रहनेवाली स्त्री को पुनः अपना लूँ। राम ने ऐसा सुना तो लोकरंजन के लिए सीता का परित्याग करके असह्य दुःख झेला; यद्यपि सीता की निर्दोषिता प्रमाणित थी। वाल्मीकि और लवकुश के प्रयास से जब जनता ने सीता को निर्दोष मान लिया और राम ने सीता से अयोध्या वापस चलने का आग्रह किया तो सीता पृथ्वी में समा गयीं। राम के दुःख की क्या कोई सीमा थी? अन्त में एक बात पर लक्ष्मण सरयू में प्रविष्ट हो गये। राम को इतना कष्ट हुआ कि वे भी सरयू में कूद पड़े। जिसका जीवन ही दुःख से भरा पड़ा हो, वशिष्ठ उसे कहते हैं- ‘सो सुख धाम’ जिन्हें दुःख स्पर्श ही नहीं करता, उनका ‘राम अस नामा। अखिल लोकदायक विश्रामा।’- वे ही सम्पूर्ण लोकों के विश्रामदाता हैं।
इस प्रकार जैसा नामकरण किया गया, वैसा कार्यक्षेत्र में पाया नहीं जाता। क्या वशिष्ठजी ने दक्षिणा के लिए ऐसी प्रशस्ति कर दी अथवा तुलसीदासजी झूठ लिखते थे? नहीं; मानस अक्षरशः सत्य है, एक भी चौपाई गलत नहीं है। लेकिन ‘वस्तु कहीं ढूंढ़े कहीं, कैसे पावै ताहि।’ वह वस्तुस्थिति ही कहीं अन्यत्र है। देखिये, प्रत्येक शास्त्र का निर्माण दो दृष्टियों से होता है- एक तो ऐतिहासिक घटना-क्रम जीवित रखना और दूसरे उस घटित घटना के माध्यम से आध्यात्मिक प्रक्रिया द्वारा परमतत्त्व तक की दूरी तय करा देना।
ऐतिहासिक घटनाओं से हम मर्यादित जीवन की प्रेरणा ग्रहण करते हैं। किन्तु कुशलतापूर्वक जी-खा लेने मात्र से मनुष्य का कल्याण नहीं हो जाता। अतः संसार में जब तक रहें तब तक शिष्टजन अनुमोदित विधि से जीवन-यापन करें, इस दृष्टि से ऐतिहासिक घटनाओं को जीवित रखा जाता है। साथ ही, इस प्रकार जीते-खाते समझ-बूझ काम करने लगे तब उस परमप्रभु के अंक में प्रवेश पाने के लिये आध्यात्मिक विद्या का सृजन मनीषियों ने किया। घटना हुई न होती तो दृष्टान्त कहाँ से बनते। उसी घटना को माध्यम बनाकर ऋषियों ने उस आध्यात्मिक संघर्ष का विस्तार से वर्णन किया, जिसका परिणाम परमशान्ति और परमतत्त्व है।
रामचरित मानस में भी इन्हीं वस्तुओं को छिपाकर लिखा गया है। मानस को मात्र इतिहास मान लेना भयंकर भूल होगी।
‘रामचरित’ का अर्थ है- राम का चरित्र। तो क्या शरीर में या भूखण्डों में जो राम हुए थे, तुलसीदास उनका चरित्र लिखने जा रहे हैं। गोस्वामीजी कहते हैं नहीं, अपितु ‘मानस’ लिख रहे हैं। मानस मन को, अन्तःकरण को कहते हैं। अतः रामचरितमानस का तात्पर्य राम के उस चरित्र से है जो मन के अन्तराल में प्रसारित है। हैं तो सब में किन्तु दिखाई नहीं देते। यहाँ तो रात-दिन काम का चरित्र, लोभ का चरित्र, मोह और छल-छद्म का चरित्र ही दिखायी देता है। राम के चरित्र तो मन में दिखाई ही नहीं देते। हैं सब में। वे जिस प्रकार मन में जागृत होते हैं और जागृत होकर राम तक की दूरी तय कराते हैं वहाँ तक का साधन-क्रम इस मानस में अंकित है।
याद रखें, जो पुस्तक के शीर्षक में होता है, उसी का पट-प्रसार, उसी का विस्तार पंक्तियों में हुआ करता है। रामचरितमानस का आशय राम के उस चरित्र से है जो मन के अन्तराल में प्रसारित है। प्रश्न उठता है कि किस प्रकार प्रसारित है? अन्तःकरण की दो प्रवृत्तियाँ पुरातन हैं। एक आसुरी सम्पद्, दूसरी दैवी सम्पद्। आसुरी सम्पत्ति अधोगति एवं नीच योनियों में फेंकनेवाली है और दैवी सम्पद् परमकल्याण करनेवाली होती है।
‘विनयपत्रिका’ में तुलसीदासजी कहते हैं, ‘वपुष ब्रह्माण्ड सुप्रवृत्ति लंका दुर्ग, रचित मन दनुज मय-रूपधारी।’ (58)- यह शरीर ही सुव्यवस्थित ब्रह्माण्ड है, जिसमें ‘प्रवृत्ति लंका’- मायिक प्रवृत्ति, शारीरिक अनुरक्ति ही लंका है।
तुलसीदासजी रोचक कहते-कहते कहीं-कहीं यथार्थ का भी संकेत करते चलते हैं। मनरूपी मय दानव ने इस प्रवृत्तिरूपी लंका का निर्माण किया है, जिसमें-
मोह दशमौलि, तद्भ्रात अहंकार, पाकारिजित काम विश्रामहारी।
लोभ अतिकाय, मत्सर महोदरदुष्ट, क्रोध पापिष्ठ-विबुधान्तकारी।। (विनयपत्रिका, 58)
मोह ही रावण है जो ‘सकल व्याधिन्ह कर मूला’ है, इसीलिए राजा है। इस लंका में क्रोधरूपी कुम्भकर्ण, लोभरूपी नारान्तक, अहंकाररूपी अहिरावण, प्रकृतिरूपी सूर्पणखा हैं और इन्हीं के बीच जीवरूपी विभीषण है जो है तो दुष्टों के बीच, मोह इसका सगा भाई है, किन्तु उसकी दृष्टि सदैव राम पर रहती है। जीवात्मा वास्तव में मोह के कारण फँसा है। मोह के संयोग से ही तो इसका नाम जीव पड़ा। यह जीव अपने परिवार, बाल-बच्चों के भरण-पोषण इत्यादि की चिन्ता में रहता है लेकिन साथ ही इसकी दृष्टि परमात्म-तत्त्व पर भी रहती है।
अभी आश्रम में एक अमेरिकन सज्जन आये थे। हमने पूछा कि इतने व्यस्त अमेरिका में भी क्या लोग भगवान को मानते हैं? वह बोले- ‘‘यह तो ‘नेचुरल’ है। न मानने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। हाँ, यह बात अलग है कि हम लोग यह नहीं जानते कि किस रास्ते से उन्हें ढूँढ़ा जाय? इसीलिए तो भारत आये हैं।’’
इसी प्रकार यह आसुरी सम्पद् क्रमशः चलकर असंख्य अधोमुखी प्रवृत्तियों का कारण बनती है। युद्ध में सबके मिटने के बाद रावण जब दुर्ग से निकला तो उसके साथ असंख्य सेना थी। सब तो मर गये थे, यह अगणित सेना अभी शेष ही थी। लेकिन है कुछ ऐसा ही। मोहरूपी रावण ही सम्पूर्ण व्याधियों का मूल है। यदि मूल जीवित है तो शाखाओं और पत्तियों का पुनः हरा-भरा हो जाना स्वाभाविक है। उस मूल में सभी प्रसुप्त हैं; समय पाकर उभड़ेंगे इसीलिये सभी जीवित माने जाते हैं।
दूसरी ओर यह शरीर ही अवध है। इसमें अवध्य स्थिति का संचार है, इसलिये यह अवध कहलाता है। इसमें दस इन्द्रियों का निरोध ही दशरथ है। इसमें भक्तिरूपी कौशल्या, कर्मरूपी कैकेयी, सुमतिरूपी सुमित्रा, मलिन मति मंथरा और ज्ञानरूपी वशिष्ठ हैं। खाना-पीना, उठना-बैठना सब ज्ञान से ही होता है, क्या यही ज्ञान? जी नहीं, ‘वश इष्ट सः वशिष्ठ’- इष्ट को वश में करनेवाली जानकारी ही वशिष्ठ है। यही जानकारी ही सच्चा ज्ञान है। तो भला वह कौन-सी युक्ति-विशेष है जिससे वह इष्ट वश में होता है? वह है श्वासरूपी शृंगी ऋषि। शृंगी ऋषि ने यज्ञ किया। ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ (गीता, 10/25)- जप ही यज्ञ है। श्वास-प्रश्वास का यजन ही यज्ञ है, हृदय की विमलता ही हवि है। जहाँ ऐसा यज्ञ हुआ तहाँ भक्तिरूपी कौशल्या की गोद में विज्ञानरूपी राम प्रकट हो जाते हैं। अनुभवी सूत्रपात होने लगता है। साथ ही विवेकरूपी लक्ष्मण, भावरूपी भरत, सत्संगरूपी शत्रुघ्न का प्रादुर्भाव हो जाता है।
साधक के हृदय में जब ये अनहोनी वस्तुएँ जागृत होती हैं तो उसका विश्वास दृढ़ हो जाता है इसीलिए विश्वासरूपी विश्वामित्र का आगमन होता है।
जानें बिनु न होइ परतीती।
बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती।। (मानस, 7/88/7)
जब तक वह जानने में नहीं आता तब तक विश्वास नहीं होता और बिना विश्वास हुए प्रीति नहीं होती, हार्दिक लगाव नहीं होता-
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई।
जिमि खगपति जल कै चिकनाई।। (मानस, 7/88/8)
बिना प्रीति के भक्ति दृढ़ नहीं होती। भक्त तो सभी बनते हैं किन्तु वह भक्ति ऐसी ही होती है जैसे जल की चिकनाई। पूरब की हवा चली तो पश्चिम के कोने में चिकनाई इकट्ठी हो गयी और दक्षिण की हवा चली तो चिकनाई उत्तर चली जाती है।
संग-दोषरूपी वायु कभी-कभी न रहने से वह जल पर छायी हुई दिखाई देती है लेकिन यह क्षणिक है। जहाँ कुसंग मिला तहाँ सारी भक्ति किनारे चली जाती है। जब साधक में अनुभव, भाव, विवेक, सत्संग का सूत्रपात होने लगता है तभी इष्ट की सर्वव्यापकता में विश्वास होता है। लोग कहते हैं विश्वास करो, किन्तु करे भी तो कैसे? आँखें मूँदकर विश्वास करोगे तो अन्धविश्वास होगा। जब अनुभवी सूत्रपात मिलने लगता है तहाँ ‘विश्वासरूपी विश्वामित्र’, विश्वास का होना स्वाभाविक है। तब विश्वास के साथ उसी यज्ञ को करने लगे। यज्ञ कोई दूसरा नहीं है। उसी यज्ञ को करने लगे जो पहले करते थे किन्तु अब विश्वास के साथ कर रहे हैं, विश्वामित्र भी साथ ही हैं। तहाँ तर्करूपी ताड़का, स्वभावरूपी सुबाहु, स्वभाव में मैलरूपी मारीच विघ्न डालते हैं किन्तु अनुभव से, विज्ञानरूपी राम द्वारा शान्त हो जाते हैं। फिर ‘अवध हृदय लय सः अहिल्या’ की गति प्राप्त होती है।
यहाँ से दैवी सम्पत्ति का प्रारम्भ है। क्रमशः चलकर दैवी गुण भी अनन्त हो जाते हैं। दैवी सम्पद् का तात्पर्य ब्रह्म आचरण की प्रवृत्ति है-
बानर कटक उमा मैं देखा।
सो मुरुख जो करन चह लेखा।। (मानस, 4/21/1)
भगवान शंकर कहते हैं- उमा, मैंने वानर कटक देखा। वह निपट मूर्ख है जो उसकी गणना करना चाहता है। आज चार अरब ही विश्व की जनसंख्या है फिर भी खाद्य-समस्या विश्वस्तर पर बनी ही हुई है। उस समय भगवान शंकर के शब्दों में, असंख्य वानर थे। वे बुद्धिहीन हैं जो गणना करना चाहते हैं। स्पष्ट है कि यह सेना भी सद्गुणों की है जो मन के अन्तराल में ही है। ब्रह्म आचरणमयी प्रवृत्ति ही वानरी सेना है इसीलिये जब गुरु वशिष्ठ ने नामकरण किया तो स्पष्ट बताया कि मानस के राम हैं। उन्होंने कहा-
बिस्व भरन पोषन कर जोई।
ताकर नाम भरत अस होई।। (मानस, 1/196/7)
भाव ही भरत है। ‘भावे विद्यते देवा’- भाव में वह शक्ति है कि परमदेव परमात्मा तक विदित हो जाता है। ‘भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।’ (मानस, 7/92 ख), भगवान अन्य किसी युक्ति से वश में नहीं होते। एकमात्र भाव से ही भगवान वश में होते हैं, जो सुख के निधान और करुणा के धाम हैं। अतः भावरूपी भरत। विश्व में किसी ने किसी का भरण-पोषण किया है, पूर्ण तृप्ति प्रदान की है तो एकमात्र भाव से। जिन-जिन के हृदय में भाव हार्दिक लगाव जागृत हुआ है, इष्ट से सीधा सम्बन्ध जुड़ा है। मनुष्य अपूर्ण है। भौतिक वस्तुओं से, रुपयों-पैसों से मनुष्य पूर्ण नहीं बन जाता। वह तो जब भी पूर्ण होगा, आत्मदर्शन से ही होगा और उस आत्मदर्शन की एकमात्र क्षमता भाव में ही सम्भव है। इन आत्माओं को कभी भी तृप्ति मिली है तो ईश्वर-दर्शन से ही मिली है और वह ईश्वर भाव के वश में है इसलिये भाव ही भरत है। भाव में ही वह क्षमता है जो इन आत्माओं को विश्व में पूर्ण तृप्त कर दे इसीलिये उसका नाम भरत पड़ा। ऐसा नहीं कि आजकल के नेताओं की तरह भरत जनता का पेट भरते। आज तो जिसके पास बैल थे, ट्रैक्टर आ गया है; लेकिन पेट नहीं भरता। उसे दस बसें दे दी जाएँ, पेट खाली ही रहता है। ‘बिड़ला’ की फैक्टरियाँ मिल जायँ, किन्तु तृष्णा तब भी कम नहीं होगी। हाँ, शोषण की भावनाएँ अवश्य बढ़ती जाती हैं। कब किसको तृप्ति मिली? महाबीर, बुद्ध को राज्य भी तृप्ति नहीं दे सका। जब कभी किसी को तृप्ति मिली है तो परमात्मा के अंक में ही मिली है, वही यथार्थ भरण और पूर्ण पोषण है। वह पोषण कैसे मिलेगा? भाव के द्वारा! अतः भाव ही भरत है। यह वेद का तत्त्व है अर्थात् जो तत्त्व विदित नहीं है, अलख-अदृश्य-अव्यक्त है उसे विदित करा देनेवाला तत्त्व है भरत; न कि कोई हाड़, माँस और चमड़ी का भरत रहा होगा।
तदनन्तर शत्रुघ्न का नामकरण करते हैं-
जाके सुमिरन तें रिपु नासा।
नाम सत्रुहन बेद प्रकासा।। (मानस, 1/196/8)
जिनके सुमिरन से शत्रुओं का नाश होता है, उनका नाम शत्रुघ्न है, ‘वेद प्रकासा’- वेदों का ऐसा निर्णय है। गुरु वशिष्ठ ने उसी निर्णय पर विश्वास किया और स्वयं भी वही निर्णय दिया। वेद और महर्षि दोनों का मत एक है कि शत्रुघ्न के सुमिरन का विधान है। इतना होते हुए भी शत्रुघ्न का सुमिरन कोई नहीं करता। इस वेदाज्ञा और सद्गुरु आज्ञा पर चलनेवाला कोई दिखायी नहीं देता। सुमिरन तो सभी राम का ही करते हैं। ‘शत्रुघ्न-शत्रुघ्न’ जपनेवाला आज तक दिखायी ही नहीं दिया। आपने कहीं सुना है? नहीं, यह है मानस का सत्संगरूपी शत्रुघ्न!
सत्संग दो प्रकार का होता है। एक सत्संग तो वह है जो वाणी से किया जाता है, जो सुनने में आता है, जैसा आप सत्पुरुषों की सभाओं में सुनते हैं। दूसरा सत्संग क्रियात्मक है। वस्तुतः सत् की संगति ही सत्संग है, यथा-
सत्य वस्तु है आत्मा, मिथ्या जगत पसार।
नित्यानित्य विवेकिया, लीजे बात विचार।।
सत्य और शाश्वत तो वह आत्मा ही है, उसका संग ही सत्संग है। यह सत्संग ध्यान, समाधि, चिन्तन, भजन के द्वारा होता है। यह अन्तरंग सत्संग केवल मन से होता है इसलिए सुमिरन से ही सत्य की संगति सम्भव है। मन सब ओर से सिमटकर उस आत्म-चिन्तन में रत हो जाय, श्वास की संगत करने लगे, उस आत्मा के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगे, बस उसी दिन से सत्य की संगति- सत्संग का प्रारम्भ हो जाता है। चिन्तन ज्यों-ज्यों सूक्ष्म होता जायेगा, मन सब ओर से सिमटकर इष्ट में केन्द्रित होता जायेगा, त्यों-त्यों शत्रुओं का नाश होता जायेगा। मन का सुमिरन और इष्ट जब तद्रूप हो जाते हैं तब मायिक शत्रुओं का उन्मूलन हो जाता है। अजेय शत्रु तो हमारे भीतर ही हैं- ‘महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर।’ (मानस 6/80 क) काम, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि वास्तविक शत्रुओं को महापुरुषों ने शोध निकाला है। बाहरी लड़ाई तो मोह का द्वन्द्व मात्र है-
जलचर-बृन्द जाल अन्तरगत, होत सिमिटि इक पासा।
एकहि एक खात लालचबस, नहिं देखत निज नासा।। (विनय0, 92 )
वास्तव में चराचर के शत्रुओं का उन्मूलन, मोहरूपी रावण इत्यादि सम्पूर्ण शत्रुओं का समूल नाश सत्संग के माध्यम से ही हुआ है। राम तो अनुभव से सूचित करनेवाले यंत्र का नाम मात्र है। सुमिरन और चिन्तन से ही मायिक शत्रुओं के नाश का विधान है। सुमिरन-चिन्तन पर ही सत्संग का उतार-चढ़ाव निर्भर है इसीलिए सत्संगरूपी शत्रुघ्न। ‘जाके सुमिरन तें रिपु नासा’- जिसके स्मरण से काम, क्रोध, मोहादि शत्रुओं का शमन हो जाता है, ‘नाम सत्रुहन बेद प्रकासा’- उसका नाम शत्रुघ्न है। राजन्! यह वेद तत्त्व है। जो परमात्मा विदित नहीं है उसको विदित करा देनेवाला तत्त्व है, न कि पाँच भौतिक पिण्डधारी कोई शत्रुघ्न थे। इसी प्रकार-
लच्छन धाम राम प्रिय, सकल जगत आधार।
गुरु बसिष्ट तेहि राखा, लछिमन नाम उदार।। (मानस, 1/197)
जो सम्पूर्ण लक्षणों के धाम हैं, राम के प्रिय हैं, ‘सकल जगत आधार। गुरु बसिष्ट तेहि राखा, लछिमन नाम उदार।।’ विवेकरूपी लक्ष्मण! सत्य क्या है? असत्य क्या है?- इसकी जानकारी और जानकारी के पश्चात् सत्य पर आरूढ़ रहने की क्षमता का नाम विवेक है। सत्य और शाश्वत तो एकमात्र ईश्वर है, आत्मा है। उस पर आरूढ़ होने की क्षमता जिसमें आ गई, वही लक्ष्मण है, वही लक्षणों का धाम है-
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई।
जाकें पद सरोज रति होई।। (मानस, 7/48/8)
उल्लेखनीय है कि उत्तरकाण्ड का यह निर्णय भी वशिष्ठजी का ही है। वही लक्षणों का धाम है, वही राम का प्रिय है। सत्य वस्तु आत्मा पर ही जिसकी दृष्टि होती है, भगवान को वही प्रिय होता है-
पुरुष नपुसंक नारि वा, जीव चराचर कोइ।
सर्वभाव भज कपट तजि, मोहिं परम प्रिय सोइ।। (मानस, 7/87 क)
पुरुष हो, नपुंसक हो, नारी अथवा नर हो, कपट का त्याग करके सर्वतोभावेन जो भी मुझे भजता है, वही मुझे परमप्रिय है। इस प्रकार परमसत्य परमात्मा की ओर अग्रसर रहने की क्षमता का नाम ही ‘लक्ष्मण’ है, ‘विवेक’ है। जिसमें यह क्षमताहोगी, वही राम को प्रिय होगा, वही सकल जगत् का आधार है। इष्ट या लक्ष्य का मनन ही लक्ष्मण है। मनन करते-करते मन इष्ट के तद्रूप होकर ईश्वरमयी स्थिति प्राप्त कर लेता है जो सम्पूर्ण जगत् का आधार है। राजन्! यह अविदित परब्रह्म को विदित करा देनेवाला तत्त्व है, लक्षण है, न कि कोई व्यक्ति-विशेष।
जो आनन्द सिन्धु सुखरासी।
सीकर तें त्रैलोक सुपासी।। (मानस, 1/196/5)
जो आनन्द के समुद्र हैं, सुख की राशि हैं, अपनी एक बूँद से त्रैलोक्य को सुपास प्रदान करनेवाले हैं, वे राम हैं। कभी-कभी साधक घबड़ाने लगता है, वहाँ भगवान एक बूँद फेंक देते हैं। कहते हैं तुम चिन्ता न करो, तुम्हें मुक्ति दे देंगे। बस एक बूँद मिला यद्यपि मुक्ति अभी अलग है किन्तु मात्र इतने आश्वासन से, जो राम द्वारा मिलता है, साधक त्रैलोक्य में सुपास पा जाता है, उसे भय नहीं रह जाता। वह पुनः साधना में लग जाता है। फिर घबराहट हुई तो बोल देते हैं, ‘तुम्हारी साधना ठीक है, बस थोड़ी-सी वृत्ति रुकी हुई है।’ सन्तोष प्रदान कर दिया, एक बूँद दे दिया। इसी प्रकार अलौकिक अनुभूतियों के द्वारा, अंग-स्पन्दन के द्वारा, ध्यानजनित दृश्यों के द्वारा, स्वप्न के द्वारा, आकाशवाणी के द्वारा ईश्वरीय संकेत का नाम ‘राम’ है। यह राम के अनुभूति की प्रारंभिक अवस्था है। राम बिना मुँह के बोलते हैं, ध्यान में बोलते हैं, हृदय एवं मस्तिष्क में बोलते हैं, मन में बोलते हैं- उस बोली का नाम राम है। वह बिना पैरों के चलते हैं, साधक के साथ-साथ चलते हैं, उनका नाम राम है। वह विज्ञान, अनुभवी उपलब्धि ही राम है। ‘भव’ कहते हैं संसार को और ‘अनु’ अतीत को कहते हैं अर्थात् भव से बाहर करनेवाली जागृति-विशेष (अनुभव) का नाम ही राम है। वह है उस परमात्मा की आवाज का हृदय में प्रस्फुटन! वह सन्देश भीतर सुनायी पड़ता है, दिखायी पड़ता है। इष्ट जब साधक की आत्मा से अभिन्न होकर जागृत हो जायँ, हृदय में दिखाई पड़ने लगें, पथ प्रदर्शन करने लगें, वही राम हैं। वह स्वयं ‘आनन्द सिन्धु’ और ‘सुखराशि’ हैं। ‘सीकर तें त्रैलोक सुपासी’ एक बूँद भी जिस साधक को देता है, उसे त्रैलोक्य में सुपास दे देता है, निर्भय बना देता है। ‘सो सुख धाम राम अस नामा’- वह सुख का धाम है उसका नाम राम है। ‘अखिल लोक दायक बिश्रामा’- सम्पूर्ण लोक को विश्राम देनेवाला वही एक स्थल है। यही अनुभव चलते-चलते जब ईश्वर के समीप की अवस्था आ जाती है तो अनुभवगम्य स्थिति ही मिल जाती है। यह अनुभव साधक भक्त को अपने में विलय कर लेता है। यजनपूर्ण स्वर की सरयू है। राम सरयू में विलीन हो जाते हैं। राम कहीं चले नहीं जाते बल्कि श्वासरूपी सरयू में प्रविष्ट हो जाते हैं, हर श्वास के साथ रहते हैं। अवधवासी भी, साथ ही, सरयू में लीन हो जाते हैं अर्थात् अवध्य स्थिति, अजर-अमर, शाश्वत स्वरूप साधक को प्राप्त हो जाता है। यही राम की पराकाष्ठा है।
प्रकृति में स्थित जीवात्मा प्रकृति से परे परमात्मा में लय हो जाय, उससे मिल जाय यही तो ‘योग’ है। एक में मिलने का नाम ‘योग’ है। दूध में जल मिल जाता है, शरीर से वस्त्र मिल जाता है, टार्च आपके हाथ से मिलती है, यह योग नहीं है। यह तो मैटर क्षेत्र की वस्तुएँ ही परस्पर टकरा रही हैं। पदार्थ पदार्थ से टकरा रहा है। योग तो दो भिन्न तत्त्वों का होता है। प्रकृति में स्थित जीवात्मा क्रमशः उत्थान करते-करते प्रकृति से भिन्न परमात्मा से मेल कर ले, वही योग है। प्रकृति नश्वर है, पुरुष शाश्वत है। दोनों दो भिन्न तत्त्च हैं। उनके मिलन और विलय का नाम ‘योग’ है। मिलन के साथ-साथ प्रकृति, जो कमजोर है, विलय हो जाती है और जो शाश्वत है वही शेष बचा रहता है। यही ‘योगरूपी जनकपुर’ है।
योगरूपी जनकपुर में ध्यानरूपी धनुष है। चित्तचढ़रूपी चाप है। चित्त के चांचल्य को तोड़ना ही चाप का तोड़ना है। जिस चित्त की चंचलता टूट जाती है ध्यान उसी से होता है।
नाथ संभु धनु भंजनिहारा।
होइहि केउ एक दास तुम्हारा।। (मानस, 1/270/1)
भगवन्! वह स्वयंभू धनु, स्वयं को उपलब्ध करानेवाला ध्यान, उस ध्यान में आनेवाली चंचलता को समाप्त करनेवाला विरला ही कोई आपका दास होगा। किसका दास? किसने पूछा था? एक महापुरुष ने पूछा था कि किसने तोड़ा, तो ‘होइहि केउ एक दास तुम्हारा।’ चित्त चढ़रूपी चाप – जब चित्त के चांचल्य का क्रम टूट जाता है तहाँ वही स्थिति ध्यान में बँध जाती है। ध्यान की योग्यता आ जाती है। जब चित्त चलायमान ही नहीं तो ध्यान ही तो लगेगा। तुरन्त शक्तिरूपी सीता मिलती है। सीता कौन थी? राम की शक्ति थी। तो शक्तिरूपी सीता! जो अनादि शक्ति है वही अनुभवों (राम) में संचारित हो जाती है। विज्ञानरूपी राम! विज्ञान और अनुभव एक दूसरे के पर्याय हैं। पहले तो अनुभव आते हैं किन्तु वे क्षीण होते हैं। चार-छः महीने किसी महापुरुष का साथ करें तो कुछ-न-कुछ देखने लगेंगे। परन्तु प्रारम्भ में अनुभव अनियमित होते हैं। जान-बूझकर गलती करने पर अनुभवों का संचार बन्द भी हो जाता है। किन्तु जब चित्त के चांचल्य का निरोध हो जाता है तहाँ शक्तिरूपी सीता मिल जाती है। अनुभवों में शक्ति का संचार हो जाता है। फिर अनुभव में जो कुछ मिलेगा वह अकाट्य होगा। ऐसा अनुभव इष्ट का मौलिक निर्णय होगा।
फिर तो ‘जागृतिरूपी जयमाला’। साधक जब पहले भजन करने बैठता है तो निद्रा आ जाती है किन्तु चित्त की चंचलता टूटने पर, अनुभवों में शक्तिरूपी सीता का संयोग होने पर निद्रा का वेग मन्द पड़ जाता है। वह इस मोहनिशा से सचेत हो जाता है, नींद नहीं आती; क्योंकि लक्ष्य आगे दिखायी देने लग जाता है।इस योगरूपी जनकपुर में भरत को माण्डवी मिली। भाव पहले खंडित होता रहता है। आज भाव है तो कल अभाव में परिणत हो जाएगा किन्तु चित्त की चंचलता समाप्त होते ही, अनुभवों में गति आ जाने पर माण्डवी मिलती है। पहले जो भाव खण्डित हो जाता था, वही भाव अब मण्डित हो जाता है। फिर टूटता नहीं, कभी नहीं टूटता।
विवेकरूपी लक्ष्मण को उनकी शक्ति उर्मिला मिली। पहले विवेक बौद्धिक स्तर पर होता है। क्या सत्य है, क्या असत्य है?- बुद्धि के द्वारा विचार कर निर्णय करना पड़ता है। विचार के द्वारा विवेकी बनना पड़ता है। किन्तु जब चित्त के चांचल्य की समाप्ति से ध्यान बँध जाता है तहाँ फिर ‘उरमिला’- विवेक हृदय से मिलने लगता है। बौद्धिक निर्णय लेने की आवश्यकता शिथिल पड़ जाती है। सत्य और असत्य का निर्णय इष्ट ही हृदय में कर देते हैं।
सत्संगरूपी शत्रुघ्न को उनकी शक्ति ‘श्रुतिकीर्ति’ मिली। सत् का संग सुमिरन से होता है। सुमिरन करते तो सभी हैं किन्तु इष्ट के चरणों में सुरति नहीं लगती। भजन करते समय शरीर अवश्य बैठा दिखायी देता है; किन्तु मन अन्यत्र भटकता रहता है।
जब तक इष्ट के चरणों में सुरत न लग जाय, उनका रूप हृदय में धारावाही दिखायी न पड़ने लगे तब तक सत्संग नहीं होता। योगेश्वर श्रीकृष्ण का निर्देश है कि, अर्जुन! काया, ग्रीवा और शिर को एक सीध में रखकर, दृढ़ होकर नासिका के अग्रभाग को देखता हुआ, अन्य किसी भी ओर न देखता हुआ मुझमें चित्त लगावे और मेरे सिवा कुछ भी न देखे। (गीता, अध्याय 6) प्रारम्भ में तो ऐसा नहीं होता, किन्तु जब चित्त के चांचल्य का क्रम टूट जाता है तहाँ ‘सुरत कृत्य’- जो सुरत लगायी जाती थी उसमें कृतार्थता आ जाती है, सफलता मिल जाती है। इसीलिए श्रुतिकीर्ति के बिना शत्रुघ्न अपूर्ण हैं। सत्य की संगति करते-करते जब सत् और सुरत पूर्णतः तद्रूप हो जायेंगे तो मायिक विकारों का, चराचर के शुभ-अशुभ संस्कारों का समूलोच्छेद हो जायेगा। इस प्रकार भाव, विवेक, सत्संग, विज्ञान सभी एक दूसरे के पूरक हैं, सहयोगी हैं। साधना के समस्त सोपानों से क्रमशः पार होकर साधक अनुभवगम्य स्थिति ही प्राप्त कर लेता है। सर्वत्र राममयी स्थिति ही हो जाती है। यही राम का वास्तविक स्वरूप है।
~स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी परमहंस।©
विनम्र शुभकामनाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
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जननी मैं न जीऊँ बिन राम……!!!!!

जननी मैं न जीऊँ बिन राम।
जननी मैं न जीऊँ बिन राम,
राम लखन सिया वन को सिधाये गमन,
पिता राउ गये सुर धाम,
जननी मैं न जीऊँ बिन राम।
कुटिल कुबुद्धि कैकेय नंदिनि,
बसिये न वाके ग्राम,
जननी मैं न जीऊँ बिन राम,
प्रात भये हम ही वन जैहैं,
अवध नहीं कछु काम,
जननी मैं न जीऊँ बिन राम,
तुलसी भरत प्रेम की महिमा,
रटत निरंतर नाम,
जननी मैं न जीऊँ बिन राम।
विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
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May be an image of text that says 'जननी, मैं न जियूँ बिन राम होत भोर हमहू वन जइबे अवध आवै केहि काम| කයනනන'
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