ॐ श्री सदगुरुदेव भगवान की जय।।
***************************
अन्तराय विघ्नो से बचने के लिए अनेक उपाय बताये गए हैं जैसे- अभ्यास मे नाम या रूप मे से किसी भी एक मे जिसमे मन अधिक लगता हो, उसी मे अधिक देर तक अभ्यास बढाये। सुखी व्यक्तियो के प्रति मैत्री भाव, सुख एक ही है- हरि की भक्ति! हरि भक्तो की संगति से जो भी उपलब्धि होगी, वह साधना परायण ही होगी। दुःखी अर्थात संसारी व्यक्ति बुरा नही होता, उसकी परिस्थिति ही ऐसी है, आप उनसे कुछ (दुर्गुण) ग्रहण न करे। श्वास को बाहर निकाले। जितना सम्भव हो उसे बाहर रोके। बार- बार श्वास बाहर निकाले और रोके। चार- छः बार भी ऐसा करने से दूषित वायु मण्डल बाहर हो जाता है।
हमारा विषय है- ईश्वर- प्रणिधान, नाम- रूप का सतत् चिन्तन- इन विषयो मे लव लग जाय, चिन्तन का स्तर उन्नत हो जाने पर, ईश्वरीय सहयोग मिलने लगता है, उस ज्योति स्वरूप द्रष्टा का दर्शन होने पर, मन की तरंगे शान्त हो जाती है। यह दर्शन विघ्नो का शमन कर, मन को स्थिर करने मे सहायक होता है। निद्राकाल मे स्वप्न मे भी साधना की पकड़, क्लिष्ट और अक्लिष्ट वृत्ति का विकास कैसा है- उसे देखते रहना। निद्रा काल मे जो दृश्य मिलता है भगवान से प्रसारित होता है, सदगुरु से मिलता है। उसका अनुसरण करने वाला चित्त, स्थिरता की ओर अग्रसर होता जाता है। वातावरण को साधना के अनुरूप ढाल लेना, आशय को बदल कर, साधना के अनुकूल ढाल लेना, यथाभिमत ध्यान है। इस प्रकार साधना और ध्यान करते करते, योगी का मन परमाणु से लेकर, परम महत्त्व के विषय पर, एकाग्रता का अधिकार प्राप्त कर लेता है। उस समय अत्यन्त सूक्ष्म परमाणु से लेकर, बड़ी से बड़ी जिस किसी वस्तु मे एक बार सुरत स्थिर हो गई, चित्त वहा स्थिर रहे, और हमे शरीर का भी भान न रहे। यह योगी के जीते हुए चित्त की विशेषता है। यही समाधि है। इस समाधि के कैई स्तर है, जिसे बाह्य मुखी और अन्तर मुखी भी कहते है। बाह्य मुखी के भी कैई स्तर है तथा अन्तर मुखी के भी कैई स्तर होते है। इन्ही को यहा महर्षि पतंजलि सूत्र 1/41 मे कहते है-
क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहण-
ग्राह्येषु तत्स्थतदञ्जनता समापत्ति:।
(योगदर्शन, 1/41)
जिसकी क्लिष्ट, अक्लिष्ट समस्त वृत्तिया क्षीण हो गयी है, उसका चित्त ग्रहीता अर्थात साधक पुरुष, ग्रहण अर्थात अन्तः करण की दृष्टि सुरत और ग्राह्य ईश्वर एवं उसका नाम इत्यादि मे उसी प्रकार तदाकार (तद्रूप) हो जाता है, जैसे उत्तम जाति की विशुद्ध स्फटिक मणि जिस वस्तु के समक्ष होती है वैसा ही रंग धारण कर लेती है। ग्रहीता, ग्रहण और ग्राह्य का बोध सम्प्रज्ञात समाधि है, जिसमे साधक को अपना एवं अपनी स्थिति का भान रहता है कि मै कहाँ हूँ? कैसा हूँ? अबसमाधि के अगले चरण पर महर्षि 1/42 मे प्रकाश डालते है-
तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः
संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः।
(योगदर्शन, 1/42)
‘समापत्तिः’ अर्थात सम्प्रज्ञात समाधियो मे भी शब्द, अर्थ और ज्ञान इन तीनो के विकल्पो से संकीर्ण अर्थात मिश्रित चित्त का समाधान सवितर्क समाधि है।
संसार मे तरह तरह के शब्द लोग सुनते ही रहते है, उसका अर्थ लगाते है, वस्तुओ का ज्ञान भी प्राप्त करते है; किन्तु उससे किसी की समाधि लगती दिखायी नही देती। वस्तुतः द्रष्टा और दृष्य के संयोग से भगवान जो प्रेरणा देते है उसी का नाम शब्द है। संत कबीर कहते है-
शब्दै मारा गिर पड़ा,
शब्द छुड़ाया राज
जिन जिन शब्द विवेकिया,
तिन्ह के सर गयो काज।।
जब शब्द पकड़ में आया, साधक गिर पड़ा, समर्पित हो गया। ‘मैं ज्ञानी हूँ, ध्यानी हूँ’- ऐसा अहं खो गया। शब्द में इतना बल है कि कोई राज्य- सुख तिनके की तरह त्याग कर अलग हो गया और जिन- जिन ने शब्द पर विवेक किया ‘तिन्हके सर गयो काज’- उनके कार्य की सिद्धि हो गयी, बेड़ा पार हो गया।
‘शब्द बिना श्रुति आँधरी’ कोई चिन्तन में मन लगाता है, सुरत में स्वरूप पकड़ता है किन्तु उसके साथ निरीक्षक- परीक्षक के रूप में शब्द नहीं मिलता, भगवान निर्णय नहीं देते तो सुरत भी अन्धी है।
शब्द बिना श्रुति आँधरि,
कहो कहाँ लौं जाये।
द्वार न पाये शब्द का,
फिर- फिर भटका खाय।।
(कबीर वाणी)
यदि शब्द का स्रोत नही मिला तो सुरत लगाने और योग साधने से कोई लाभ नही, जाने कहा ले जाकर पटक दे। ये शब्द है भगवान के। द्रष्टा स्वयं जो दृश्य प्रसारित करते है, जिसका प्रयोजन पुरुष के लिये साधनोपयोगी भोग तथा मोक्ष प्रदान करना है। वे द्रष्टा जैसा जैसा दृश्य प्रस्तुत करते है, उसका नाम है शब्द। चित्त शान्त प्रवाहित है, ऐसे मे कैसा शब्द सुनायी दिखायी पड़ा उसका अर्थ और उसकी जानकारी- इन तीनो के विकल्पो से संकीर्ण (मिली हुई) चित्त की समाधि सवितर्क है। यहा परमात्मा तो नही है, केवल सम्प्रज्ञात समाधि है किन्तु परमात्मा का विकल्प भली प्रकार पुष्ट है। कबीर कहते हैं- ‘शब्द सो प्रीति करे सो पावे।’ इससे उन्नत समाधि की अवस्था निर्वितर्क है, जिस पर महर्षि 1/43 मे प्रकाश डालते है-
स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्ये-
वार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का।
(योगदर्शन, 1/43)
जब चित्त का निज स्वरूप शून्य हो जाता है, केवल लक्ष्य मात्र का ही आभास रह जाता है, उस समय ‘स्मृतिपरिशुद्धौ’- स्मृति भली प्रकार शुद्ध हो जाती है, तब वह निर्वितर्क समाधि है। न शब्द है, न अर्थ है, न ज्ञान है, चित्त का स्वरूप ही शून्य हो गया, कौन शब्द सुने तथा कौन ज्ञान रखे, लक्ष्य का आभास मात्र है उस समय स्मृति विशेष रूप से शुद्ध है, यह निर्वितर्क समाधि की अवस्था है; क्योकि स्मृति और संस्कार का एक ही स्वरूप होता है। अब स्मृति- पटल पर कोई संस्कार अंकुरित नही होगा। कैवल्यपाद के नवम सूत्र में महर्षि बताते हैं कि जाति अर्थात जन्म- परिवर्तन, देश और काल के लम्बे अन्तराल से भी संस्कारो में परिवर्तन या विराम नहीं होता। वे ठीक समय पर प्रकट होते हैं; किन्तु यहा वे संस्कार निर्मूल हो गये फिर भी संस्कारो का बीज अभी बना हुआ है; क्योकि चित्त अभी जीवित है। इससे उन्नत अवस्था पर महर्षि 1/44 मे प्रकाश डालते है-
एतयैव सविचारा निर्विचारा
च सूक्ष्मविषया व्याख्याता।
(योगदर्शन, 1/44)
‘एतया एव’- इस से (पूर्वोक्त सवितर्क और निर्वितर्क के वर्णन से) सविचार और निर्विचार समाधि का तथा ‘सूक्ष्मविषया’- साधना की सूक्ष्म अवस्था का भी वर्णन कर दिया गया है। अब आगे 1/45 मे देखे इन समाधियो का परिणाम-
सूक्ष्मविषयत्वं चालिङ्गपर्यवसानम्।
(योगदर्शन, 1/45)
साधना की इन अति सूक्ष्म अवस्था मे ‘अलिङ्गपर्यवसानम्’- प्रकृति की अति सूक्ष्म परतो, मूल प्रकृति पर्यन्त भली प्रकार वशीकार हो जाता है। अब प्रकृति भी उसे उद्वेलित नही कर सकती। महर्षि 1/46 मे कहते है-
ता एव सबीजः समाधिः।
(योगदर्शन, 1/46)
उपर्युक्त सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार, निर्विचार समाधिया निर्विकल्प होने पर भी निर्बीज नही है। चित्त का बीज विद्यमान है इसलिए ये सब की सब सबीज समाधि ही है। इन चार प्रकार की समाधियो मे भी निर्विचार समाधि के निर्मल हो जाने पर- महर्षि 1/47 मे कहते है-
निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः।
(योगदर्शन, 1/47)
निर्विचार समाधि अत्यन्त निर्मल होने पर योगी मे ‘अध्यात्मप्रसादः’- आत्मिक विभूतिया भली प्रकार प्रसारित हो जाती है। सनातन पुरुष अजन्मा, शाश्वत जिन विभूतियो वाला है, वे सारी विभूतिया योगी को प्राप्त हो जाती है। आत्मा का आधिपत्य स्थापित हो जाता है। आत्मिक विभूतियों का सारा प्रसाद उसे प्राप्त हो जाता है। अब कोई विभूति उससे अलग नही है। उस समय योगी की बुद्धि ऋतम्भरा होती है। महर्षि ऋतम्भरा बुद्धि पर 1/48 मे कहते है-
ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा।
(योगदर्शन, 1/4)
उस समय योगी की प्रज्ञा (बुद्धि) ऋतम्भरा अर्थात सत्य से संयुक्त हो जाती है। अब वह परमतत्त्व परमात्मा को धारण करने की क्षमता वाली हो जाती है। जब अध्यात्म का प्रसाद मिल गया तो अब केवल परम चेतन को पाना मात्र शेष रह गया। यह बुद्धि साधारण बुद्धियो से अलग है। इस पर महर्षि 1/49 मे कहते है-
श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात्।
(योगदर्शन, 1/49)
श्रुत अर्थात श्रवण किये हुए और अनुमान से होने वाली बुद्धि की अपेक्षा इस ऋतम्भरा प्रज्ञा का विषय भिन्न है। जिसका ज्ञान श्रुत और अनुमान से नही होता उसकी जानकारी इस प्रज्ञा से होती है; क्योकि यह विशेष अर्थवाली है। विशेष पुरुष ईश्वर है, उस अर्थ वाली है, उसको ग्रहण करने की क्षमता वाली है, इसलिए श्रवण और अनुमान से जो बुद्धि तैयार होती है उसकी अपेक्षा यह बुद्धि अत्यन्त परिमार्जित है। इस बुद्धि का विषय भिन्न है; क्योकि यह केवल प्रकृति से परे आत्मा (द्रष्टा) को धारण करने की क्षमता वाली है।
‘श्रुत’- केवल सुनने से कोई बुद्धि तैयार नही होती। श्रवणेन्द्रिय मे कोई ध्वनि टकराते ही स्पर्श, रूप, रस इत्यादि प्रत्येक के अभ्यास तथा अन्य जन्मो के संस्कार स्मृति- पटल पर उभरते ही अनुमान का सूत्र पात होने लगता है, वस्तुओ की जानकारी हो जाती है; किन्तु यह प्रज्ञा विशेष अर्थ वाली है।
श्रुति या सुरत मन की दृष्टि है। यह भला- बुरा सब कुछ ग्रहण करती है। सुरति मे स्फुरण के साथ ही अनुमान होने लगता है; किन्तु इस ऋतम्भरा प्रज्ञा का स्तर उससे उन्नत है। यह ‘पुरुष विशेष ईश्वरः’ को धारण करने की क्षमता वाली होती है। इसके महत्त्व पर महर्षि 1/50 मे पुनः प्रकाश डालते है-
तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी।
(योगदर्शन, 1/50)
इस ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कार अन्य समस्त संस्कारो का प्रतिबन्धक होता है, उन सब का निरोध कर देता है। इसके पश्चात प्रकृति बाधक नही रह जाती। अब कोई संस्कार प्राप्ति मे बाधक नही होता। महर्षि 1/51 मे कहते है-
तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः।
(योगदर्शन, 1/51)
ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कार भी जब शान्त हो जाता है, उस समय सर्व निरोध के साथ निर्बीज समाधि हो जाती है। ऋतम्भरा प्रज्ञा के प्रभाव से जब अन्य समस्त संस्कारो का अभाव हो जाता है, उससे उत्पन्न संस्कार ईश्वर को धारण करने की क्षमता वाला हो जाता है, वह ईश्वर मिलकर इस संस्कार को भी शान्त कर देता है- इस प्रकार संस्कारो के बीज का सर्वथा अभाव हो जाने से इस अवस्था का नाम निर्बीज समाधि है। इसी को कैवल्य पद, कैवल्य समाधि भी कहते है।
निष्कर्ष – महर्षि पतञ्जलि कहते है, कि जिसकी क्लिष्ट, अक्लिष्ट समस्त वृत्तिया क्षीण हो गयी है उसका चित्त ग्रहीता (साधक, पुरुष), ग्रहण (अन्तः करण की दृष्टि, सुरत) और ग्राह्य (ईश्वर एवं उसका नाम इत्यादि मे) उसी प्रकार तदाकार तद्रूप हो जाता है, जैसे उत्तम जाति की विशुद्ध स्फटिक मणि, जिस वस्तु के समक्ष होती है, वैसा ही रंग धारण कर लेती है। ग्रहीता, ग्रहण और ग्राह्य का बोध सम्प्रज्ञात समाधि है, जिसमे साधक को अपना एवं अपनी स्थिति का भान रहता है। सम्प्रज्ञात समाधियो मे भी शब्द, अर्थ और ज्ञान इन तीनो के विकल्पो से मिश्रित चित्त का समाधान, सवितर्क समाधि है। संसार मे तरह तरह के शब्द लोग सुनते ही रहते है, उसका अर्थ लगाते है। वस्तुतः द्रष्टा और दृष्य के संयोग से, भगवान जो प्रेरणा देते है, उसी का नाम शब्द है। जब चित्त का निज स्वरूप शून्य हो जाता है, केवल लक्ष्य मात्र का ही आभास रह जाता है, उस समय स्मृति भली प्रकार शुद्ध हो जाती है, तब वह निर्वितर्क समाधि है। न शब्द है, न अर्थ है, न ज्ञान है, चित्त का स्वरूप शून्य हो गया, कौन शब्द सुने तथा कौन ज्ञान रखे, लक्ष्य का आभास मात्र है। उस समय स्मृति विशेष रूप से शुद्ध है, यह निर्वितर्क समाधि की अवस्था है, क्योकि स्मृति और संस्कार का एक ही स्वरूप होता है। अब स्मृति पटल पर कोई संस्कार अंकुरित नही होगा। यहा वह संस्कार निर्मूल हो गये, फिर भी संस्कारो का बीज अभी बना हुआ है, क्योकि चित्त अभी जीवित है। इस से सविचार और निर्विचार समाधि का तथा साधना की सूक्ष्म अवस्था का भी वर्णन कर दिया गया है। साधना की इन अति सूक्ष्म अवस्था मे, प्रकृति की अति सूक्ष्म परतो, मूल प्रकृति पर्यन्त, भली प्रकार वशीकार हो जाता है। अब प्रकृति भी उसे उद्वेलित नही कर सकती। उपर्युक्त सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार, निर्विचार समाधिया निर्विकल्प होने पर भी, निर्बीज नही है। चित्त का बीज विद्यमान है, इसलिए ये सब की सब सबीज समाधि ही है। इन चार प्रकार की समाधियो मे भी, निर्विचार समाधि के निर्मल हो जाने पर। योगी मे आत्मिक विभूतिया, भली प्रकार प्रसारित हो जाती है। सनातन पुरुष अजन्मा, शाश्वत जिन विभूतियो वाला है, वे सारी विभूतिया योगी को प्राप्त हो जाती है। आत्मा का आधिपत्य स्थापित हो जाता है। अब कोई विभूति उससे अलग नही है। उस समय योगी की प्रज्ञा (बुद्धि) ऋतम्भरा अर्थात सत्य से संयुक्त हो जाती है।
अब वह परमतत्त्व परमात्मा को, धारण करने की क्षमता वाली हो जाती है। जब अध्यात्म का प्रसाद मिल गया, तो अब केवल परम चेतन को, पाना मात्र शेष रह गया। यह बुद्धि साधारण बुद्धियो से अलग है। श्रवण किये हुए और अनुमान से होने वाली बुद्धि की अपेक्षा, इस ऋतम्भरा प्रज्ञा का विषय भिन्न है। जिसका ज्ञान श्रुत और अनुमान से नही होता, उसकी जानकारी इस प्रज्ञा से होती है। क्योकि यह विशेष अर्थवाली है। विशेष पुरुष ईश्वर है, उस अर्थ वाली है, उसको ग्रहण करने की क्षमता वाली है, इसलिए श्रवण और अनुमान से जो बुद्धि तैयार होती है, उसकी अपेक्षा यह बुद्धि अत्यन्त परिमार्जित है। इस बुद्धि का विषय भिन्न है, क्योकि यह केवल प्रकृति से परे, आत्मा को धारण करने की, क्षमता वाली है। इस ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कार, अन्य समस्त संस्कारो का प्रतिबन्धक होता है, उन सब का निरोध कर देता है। इसके पश्चात प्रकृति बाधक नही रह जाती। अब कोई संस्कार प्राप्ति मे बाधक नही होता।
ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कार भी, जब शान्त हो जाता है, उस समय सर्व निरोध के साथ, निर्बीज समाधि हो जाती है। ऋतम्भरा प्रज्ञा के प्रभाव से, जब अन्य समस्त संस्कारो का, अभाव हो जाता है। उससे उत्पन्न संस्कार, ईश्वर को धारण करने की क्षमता वाला हो जाता है। वह ईश्वर मिल कर, इस संस्कार को भी शान्त कर देता है। इस प्रकार संस्कारो के बीज का, सर्वथा अभाव हो जाने से, इस अवस्था का नाम, निर्बीज समाधि है।
इसी को कैवल्य पद, कैवल्य समाधि भी कहते है। प्रश्न पूरा हुआ।
~स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी।©