That unborn, Eternal One Has, Out of Love and Devotion, Taken the Lap of Kausalya! (सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद!)

सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद…..!!!!!
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That unborn, Eternal One Has, Out of Love and Devotion, Taken the Lap of Kausalya!

 

“रचि महेश निज मानस राखा।”
शंकरजी ने इसे अपने मन के अन्तराल में रखा था ।
Lord Shankar (Shiva) had kept it deep within his heart.

 

राम कथा के तेइ अधिकारी ।
जिन्ह के सतसंगति अति प्यारी ॥
गुर पद प्रीति नीति रत जेई ।
द्विज सेवक अधिकारी तेई ।
( मानस , 7 / 127 / 6-7 )

 

इस अवतरण में दसों इन्द्रियों की निरोधमयी वृत्ति ही दशरथ है , विषयों में तो निरोध होता ही नहीं- 
In this context, the restraining tendencies of the ten senses represent Dasharath, as restraint is never found in worldly indulgences.

 

“जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई” ।
जहाँ निरोध हुआ , संयम सधा ,
सुरत भगवान से जुड़ी तो भक्ति जागृत हुई,
“भक्तिरूपी कौशल्या !”
Where restraint rises, discipline/control of senses is established, and the mind is connected with the Lord, devotion is awakened— Kausalya, the embodiment of devotion.

 

‘ सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोदा ‘
भगवान कौशल्या की गोद में आ गये , जागृत हो गये । विज्ञानरूपी राम ! जो आत्मा प्रसुप्त है , हृदय से जागृत होकर अनुभव प्रसारित करने लगती है ।
यह अवतार है जो किसी – किसी योगी के हृदय में
होता है।

The Lord came into Kausalya’s lap and awakened—Ram, the embodiment of wisdom! The soul, which lies dormant, awakens within the mind and begins to radiate insights. This is the incarnation that manifests in the hearts of only a few yogis.”

 

भगवान पहले शिशुरूप में होते हैं ,
क्रमशः योगरूपी जनकपुर में पहुँचते हैं
जहाँ ध्यानरूपी धनुष है , चित्तचढ़रूपी चाप है ।
चित्त की चंचलता का क्रम टूट जाता है ,
ध्यान की स्थिति बन जाती है
At this stage of a Yogi, Lord is in the form of a child and gradually reaches Janakpur (Yog) where the bow signifies meditation, and the string the focused mind. The restlessness of the mind is broken, and the state of deep meditation is attained.

 

तहाँ शक्तिरूपी सीता , राम शक्ति से संयुक्त हो जाते हैं ।
और जब तक चौदह वर्ष का वनवास अर्थात् अध्यात्म की चौदह भूमिकाएँ पूर्ण नहीं हो जाती ,
तब तक भाव ही श्रेष्ठ होता है , तब तक भरत राजा हैं।
There, Sita (signifies Strengh/Persistence to stay on course) becomes united with the divine power of Ram. And until the fourteen years of exile, which symbolize the fourteen stages of spiritual practice and unless these stages are not completed, the feeling (bhav) remains supreme. During this time, Bharat remains as the king.

 

साधक को श्रद्धाभाव से डूबकर भजन में लगना है
तब तक सीता भी अग्नि में समाहित रहती हैं ,
योगाग्नि में प्रसुप्त रहती हैं ,
मोहरूपी रावण से आवृत्त रहती हैं ।
भगवान ने उनसे कहा था
The seeker must immerse oneself with faith and engage in worship. Until then, Sita remains absorbed in the fire, dormant in the fire of yoga, and enveloped by the illusionary Ravan. The Lord had told her.

 

“सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला ।
मैं कछु करबि ललित नर लीला ।।
तुम्ह पावक महुँ करहुँ निवासा ।
जौ लगि करौं निसाचर नासा ॥”
( मानस , 3 / 23 / 1-2 )

 

~स्वामी अड़गड़ानंद जी परमहंस।
विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~ मृत्युञ्जयानन्द।
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