The Ethical but Dignified Anger of Maryada Purushottam Lord Shri Ram!

मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम का नीतिगत किंतु मर्यादित क्रोध।
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The ethical but dignified anger of Maryada Purushottam Lord Shri Ram.
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दोहा:
Doha:
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बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥
इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!
Although three days had elapsed, the crass ocean would not answer the Lord’s prayer. Shri Ram thereupon indignantly said, “There can be no friendship without inspiring fear.”

 

चौपाई :
Chaupai:
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लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥
हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति (उदारता का उपदेश),
Lakshman, bring me my bow and arrows; I will dry up the ocean with a missile presided over by the god of fire. Supplication before an idiot, friendship with a rogue, inculcating liberality on a born miser,

 

ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥
ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान् की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात् ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥
talking wisdom to one steeped in worldliness, glorifying dispassion before a man of excessive greed, a lecture on mind control to an irascible man and a discourse on the exploits of Shri Hari to a libidinous person are as futile as sowing seeds in a barren land.”

 

अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥
ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी॥
Saying so, the Lord of the Raghus strung His bow and this stand (of the Lord) delighted Lakshman`s heart. When the Lord fitted the terrible arrow to His bow, a blazing fire broke out in the heart of the ocean;

 

मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥
मगर, साँप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों (रत्नों) को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया॥
The alligators, serpents and fishes felt distressed. When the god presiding over the ocean found the creatures burning, he gave up his pride and, assuming the form of a Brahman, came with a gold plate filled with all kinds of jewels.

 

दोहा :
Doha:
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काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥
(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)॥
Though one may take infinite pains in watering a plantain it will not bear fruit unless it is hewed. Similarly, mark me, O king of birds, continues Kakbhushandi a vile fellow heeds no prayer but yields only when reprimanded.

 

चौपाई :
Chaupai:
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सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥
समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है॥
The god presiding over the ocean clasped the Lord’s feet in dismay. “Forgive, my lord, all my faults. Ether, Air, Fire, Water and Earth— all these, my lord, are dull by nature.

 

~रामचरित मानस।
Ramcharit Manas.
विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
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