रामनवमी के पुण्य अवसर पर पूज्य गुरुदेव द्वारा अमूल्य आध्यात्मिक रहस्योद्घाटन।
जे राखे रघुबीर, ते उबरे तेहिं काल महु!
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इहां देव ऋषि गरुड़ पठायो ।
राम समीप सपदि सो आयो ।।
दो :- खगपति सब धरि खाए, माया नाग बरूथ।
माया विगत भए सब, हरषे वानर जूथ।।
गरुड को भेज दिया नारद ने। नारद कहते हैं आकाश को। साधक की नाभि में – इस नभ में वाणी मिली, अंतर्जगत से ईश्वरीय संकेत हो गया। उपाय हो गया। गरुड़ आ गया। गरुड़ कहते हैं जीते हए मन को। गरुड़ कोई चिडि़या नहीं है।
जानकारी होने से, इष्ट की अनुकूलता से, साधक को अन्दर ही अन्दर संकेत मिल जाता है, तो मन जो विषय से भर गया था, वह उस काम वासना से मुक्त होकर ईश्वरीय भावना से युक्त हुआ। मन सर्प से गरुड बन गया। जो विषय के संकल्यो का जाल बुन रहा था बन्द हो गया – ईश्वरीय संकल्प वाला मन हो गया। यह गरुड़ जब बन गया, तो विषय के संकल्प शान्त हो गए। विषय के संकल्परूपी सर्पों को खा गया गरुड़। मन की ऐसी यह प्रक्रिया है, जो बाहर घटना के रूप में दिखाई गई है। क्षण क्षण में मन बदलता रहता है। विषय में जाता है, तो सर्प कहा जाता है – ईश्वरीय भावनाओं में बहता है तो गरुड़ कहा जाता है, हंस कहा जाता है-
पहले यह मन सर्प था , करता जीवन घात ।
अब तो मन हंसा भया , मोती चुन चुन खात ।।
तो अब समाज के लोगों में राम का नागपाश में बंध जाना एक बड़ा प्रश्न बन जाता है। भगवान जो बंधन से परे है, असीम है, गुणातीत है, प्रकृतिपार है, वह बंधन में कैसे आ गया? मेघनाद ने नागपाश में डाल दिया – यह कैसे संभव है? गरुड़ को इसी प्रश्न ने परेशान कर दिया था। इसमें समझने की बात यह है कि भगवान कोई आदमी नहीं है – न कोई पदार्थ है। वह तो आकाशवत निर्लेप है। आकार रहित है। ऐसा जो तत्व है, सबके अन्दर आत्मा के रूप में है। ‘आत्मा नाम की शरीर के अन्दर कोई अलौकिक चीज है। वह परमात्मा ही माया से आच्छादित होकर जीवात्मा कहा जाता है। वह बोल रहा है अन्दर से।
वह परमात्मा, जीवात्मा रूप से सबके अन्दर माया के वशीभूत होते हुए भी, तत्वतः निर्लेप है। वह बंधते हए भी बंधता नहीं, चलते हुए चलता नहीं, बोलते हुए। बोलता नहीं। ऐसा जो भगवान है, वह – कैसे नागपाश में बंध गया और गरुड के छुड़ाने से छूटा। जो खुद अपने को नहीं छुड़ा पाया तो दूसरे को क्या छुड़ाएगा? तो यह सब भगवान कुछ नहीं करता – न बंधता है न बांधता है, न छूटता है न छुड़ाता है। वह तो ज्यों का त्यों है स्तंभवत। उसकी माया का सब खेल है। मनुष्य का मन एक विचित्र उपकरण है। शास्त्र कहता है-
‘मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षायोः।
बंधाय विषयासक्तं , मुक्त्यैर्निर्विषयस्मृतम् ।।
यह मन जब माया उन्मुख होता है तो बांधने वाला बन जाता है। विषयोन्मुख होकर नागपाश बनजाता है। यही मन निर्विषय होकर ईश्वरोन्मुख होता है तो गरुड बन कर बंधन काट देता है – मोक्ष दिला देता है। तो यह सब साधनात्मक बातें हैं। उच्च स्तर की बातें हैं। बुद्धि लगाकर समझना पड़ेगा। मानस में अवगाहन करना पड़ेगा।
इहां विभीषन मंत्र विचारा ।
सुनहु नाथ बल अतुल उदारा ।।
मेघनाद मख करइ अपावन ।
खल मायावी देव सतावन ।।
जौ प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि ।
नाथ वेगि पुनि जीति न जाइहि ।।
सुनि रघुपति अतिसय सुख माना ।
बोले अंगदादि कपि नाना ।।
लछिमन संग जाहु सब भाई ।
करहु विधंस जग्य कर जाई ।।
जामवंत ने मेघनाद को मूर्छित करके लंका में फेंका। जब उसको होश हआ तो रावण को वहां देखकर उसे लाज लगी। क्योंकि खूब डींग हांक रहा था कि – ‘देखेहु कालि मोरि मनुसाई’ और खुद ही हार खा गया। तो जाकर एक पहाड़ की गुफा में निकुंभला देवी की आराधना करने लगा। अपावन यज्ञ करने लगा। निकुंभला देवी का मतलब स्त्री की इंद्रिय (योनि) से है। यह कामरूपी मेघनाद की इष्ट देवी है। कामावेशित पुरुष को वही अभीष्ट होता है। उसी का यजन – भजन होने लगा। लेकिन यह अपावन यज्ञ यदि पूरा हुआ – अगर स्त्री संसर्ग हो गया एक बार – तो फिर कामदेव को कोई जीत नहीं सकता। फिर साधक सदा के लिए पतित हो जाता है। कामवासना को जीत नहीं पाएगा। इसलिए यह अपावन यज्ञ हो न पाए अर्थात साधक को संभलना चाहिए। तो भगवान संभालते हैं , तभी संभल सकता है।
‘जे राखे रघुबीर, ते उबरे तेहि काल महुँ।’
तो विभीषण ने बताया राम से, कि ऐसा होने वाला है। यह विभीषण कैसे जान गया वहां की बात? विचार करने की बात है। इसलिए यह यहां – वहां की बात नहीं है। यह साधक के अन्दर क्रिया चल रही है। साधक के अन्तर्जगत में ऐसे तो काम का प्रभाव मन में नहीं रहा – नागपाश कट चुका। लेकिन अभी यह काम रूपी मेघनाद मरा नहीं है। वह चुपचाप गुफा में निकुंभला की पूजा कर रहा है। मतलब काम विषयक आसक्ति गहराई में छिपकर बैठी है। चित्त के अन्तराल में अस्पष्ट रूप से कामदेव अपना काम कर रहा है। साधक को भरोसा हो जाता है कि मैने काम वासना को मन से निकालने में सफलता प्राप्त कर ली है। लेकिन वह गहराई में छिपा है – मौका पाकर पटक देगा। जैसे नारद को पटक दिया था। लेकिन भगवान रक्षा करते हैं, तो बचत हो जाती है। भगवान हमारे अन्दर बैठे है, जीवात्मा के रूप में। अन्तःकरण की गतिविधियों के द्रष्टा हैं। साधक को समय – समय पर आत्मा से संकेत मिलते हैं। अच्छे साधक उन संकेतो को पकड़ लेते हैं, और सुधार करते चलते हैं।
जीवात्मा है विभीषण, वह सब जानता है। वही बताता है। जब अन्दर से आत्मिका संकेत मिल गया, तो साधक सचेष्ट होकर लग गया। विवेक – लक्ष्मण, सुरति -सुग्रीव, अनुराग – अंगद सबकी मदद ले लिया। और अब कामरूपी मेघनाद को सदा – सदा के लिए समाप्त कर दिया जाएगा। साधना करने वाले साधक को ऐसे ढंग से अर्थ लेना चाहिए। क्योंकि बाहर की दुनिया से उसका लेना – देना रहता नहीं। वह तो अन्तर्मुखी हो चुका है। बाहर से आंख मूंद लिया है, इसलिए अन्दर देखना है। यही सही अर्थ है। अन्यथा गोस्वामी जी इसका नाम ‘रामचरित मानस’ क्यों रखते? ईश्वर के भजन में जिसका मन लगा है, उसका मन है मानस।
~स्वामी अड़गड़ानन्द जी परमहंस।©
विनम्र शुभकामनाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।