बुद्धिहीन रावण! राम क्या मनुष्य हैं…?

बुद्धिहीन रावण! राम क्या मनुष्य हैं?
रामनवमी के पुनीत अवसर पर महापुरुषों का विशिष्ट चिंतन..!!
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जद्यपि ब्रह्म अखण्ड अनन्ता।
अनुभव गम्य भजहिं जेहि सन्ता।।
(मानस, 3/12/12)

 

योगी अनुभव में रमण करते हैं। अनुभव भव से अतीत एक जागृति है, विज्ञान है; जिसके द्वारा परमात्मा के निर्देश प्राप्त होते रहते हैं। वही राम हैं जो पहले संचालक, पथ-प्रदर्शक के रूप में आते हैं। विवेकरूपी लक्ष्मण, भावरूपी भरत, सत्संगरूपी शत्रुघ्न सभी एक दूसरे के पूरक हैं। प्रारंभ में संकेत, इष्ट का निर्देश बहुत संक्षिप्त एवं क्षीण रहता है। राम बालक रहते हैं। क्रमश: उत्थान होते-होते वह योगरूपी जनकपुर में पहुँचते हैं। जनक वह है जिसने जना, जन्म दिया। सृष्टि में शरीरों का जन्म माता-पिता से होता है, किंतु निज स्वरूप का दिग्दर्शन एवं जन्म योग से ही होता है। योग से स्वरूप की अनुभूति होती है इसलिए वह जनक है। योगरूपी जनकपुर- जनक एकवचन है किंतु यहाँ जनकपुर है; क्योंकि एकमात्र योग से ही अनंत आत्माओं ने अपना स्वरूप पाया है और भविष्य में भी योग ही माध्यम है। योग का आश्रय पाकर राम शक्ति से संयुक्त हो जाते हैं, आसुरी प्रवृत्तियों का शमन करके सर्वव्यापक हो जाते हैं और फिर रामराज्य की स्थिति चराचर पर छा जाती है। योग की पकड़ आते ही अनुभव जागृत हो उठते हैं।जागृतिरूपी जयमाला मिलती है और अनुभवरूपी राम शक्तिरुपी सीता से संयुक्त हो जाते हैं। यह योग की प्रवेशिका है।
शनै:-शनै: राम शक्ति के साथ आगे बढ़ते हैं, व्यवधान आते हैं और जब मोह का समूल अंत हो जाता है तो अमृततत्व की प्राप्ति हो जाती है, सुधावृष्टि होती है। अमृत कोई घोल पदार्थ नहीं है कि पानी की तरह वर्षा हो। अंगद ने रावण से कहा-

 

राम मनुज कस रे सठ बंगा। धन्वी कामु नदी पुनि गंगा।
पसु सुरधेनु कल्पतरू रूखा। अन्न दान अरू रस पीयूषा।।
(मानस, 6/25/5-6)

 

बुद्धिहीन रावण! राम क्या मनुष्य हैं? गंगा क्या किसी नदी का नाम है? कामधेनु क्या किसी पशु का नाम है? काम क्या कोई धनुर्धर है? अमृत क्या कोई घोल पदार्थ है कि उठाकर पी लोगे या छिड़क दोगे? जब अमृत घोल पदार्थ नहीं है तो है क्या? वस्तुत: मृत नाशवान् को कहते हैं, जो मरणधर्मा हो। अमृत वह है जो अक्षय है, अक्षर है, शाश्वत है। परात्पर ब्रह्म ही अमृत है, जहाँ पहुँचकर यह मरणधर्मा मनुष्य पुनर्जन्म का अतिक्रमण कर जाता है।
उस अमृततत्व के संचार के साथ ही क्रमश: उत्थान करते-करते भक्त खो जाता है और राम ही शेष बचते हैं।

 

~स्वामी श्रीअड़गड़नन्दजी परमहंस।©
विनयावनत,
~मृत्युञ्जयानन्द।
                                                                             
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