श्रीमदभगवदगीता से परिभाषित “धर्म” शब्द की आध्यात्मिक व्याख्या।
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विश्व के नाम एक संदेश।
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किन्तु वह परमात्मा अचिंत्य और अगोचर है, चित्त की तरंगों से परे है।
चित्त का निरोध करके उस परमात्मा को पाने की विधि विशेष का नाम कर्म है।
इस कर्म को कार्यरूप देना धर्म है।
इस कर्मरूपी धर्म का किंचितमात्र साधन जन्म मृत्यु के महान भय से उद्धार करने वाला होता है।
अतः इसी कर्म को कार्यरूप देना धर्म है।
जिस परमात्मा से सभी प्राणियों की उत्पत्ति हुई है, जो सर्वत्र व्याप्त है,
स्वभाव से उत्पन्न हुई छमता के अनुसार उसे भलीभांति पूजकर मानव परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है
अर्थात
नियत विधि से एक परमात्मा का चिन्तन ही धर्म है।
भगवदगीता में श्रीकृष्ण ने कहा – “सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।” ( गीता, 18/66) – अर्जुन ! सारे धर्मों की चिंता छोड़ कर एक मेरी शरण हो जा।
अतः एक परमात्मा के प्रति समर्पित व्यक्ति ही धार्मिक है।
एक परमात्मा में श्रद्धा स्थिर करना ही धर्म है।
उस एक परमात्मा के प्राप्ति की निश्चित क्रिया को करना धर्म है।
धर्म मनुष्य के आचरण की वस्तु है।
वह आचरण केवल एक है- “व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।”(गीता, 2/41)।
इस कर्मयोग में निश्चयात्मक क्रिया एक ही है- इंद्रियों की चेष्टा और मन के व्यापार को संयमित कर
परात्पर ब्रह्म में प्रवाहित करना – सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।”
~स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी।©
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