अंतःकरण के कोने कोने में,
अनगिनत वृत्तियों के हस्ताक्षरों के बीच
कोई जाना पहचाना, आत्मस्थित फ़कीर प्रति पल
विक्षिप्तों सा कुछ गुनगुनाता है जिसके घायल शब्दों ने
अपना आधिपत्य कर रखा है मेरे एक एक श्वासों पर।
इस संदेश के गर्भ में पलते मर्म ने,
चीर दिया है सीना अब तक के शोधित संदर्भों का
जिनका अब न कोई अस्तित्व ही दिखता है
न ही कोई विश्वास शेष रहा अब पूर्व संचित विश्वासों पर।
“तेरी याद में जल कर देख लिया,
अब तेरी आग में जल कर देंखेंगे।”
तुम गुनगुनाओ मेरे फ़कीर, और गुनगुनाओ,
आओ मेरे संग, आ जाओ झूम झूम के गाओ।
मुझे भी अब तो गले लगाओ,
और अपनी अनगिनत स्नेहिल थपकियों से
शोधित कर दो मेरे उन बेसुरे सुरों को,
उत्पात मचा रखा है जिन्होंने जन्म जन्मान्तरों से
और मात्र मनमोहक यादों के झरोखों में उलझा कर
अब तक दूर रखा है मुझे उसकी आग की लपटों से
जिसमें जल जल कर ही, शेष बचे सर्व संकल्पों की
धधकती चिता की लपटों में झुलस झुलस कर,
अब पूर्ण और केवल पूर्ण समाधिस्थ ही होना है। ©
सविनय,
हरि ॐ तत् सत् !