An Intution……..!!!!!

******
संसार अनेक दृष्टिकोणो से भरा हुआ है। मैं सबके दृष्टिकोणो का भरपूर सम्मान करता हूँ। ज्ञान योगियों के लिए भरपूर सम्मान है मेरे हृदय में। लेकिन मुझे भक्ति योग में अत्यधिक रुचि है।

इष्ट के प्रति पूर्ण समर्पण स्वयं मार्ग दर्शन करता रहता है। हम कहां तक पहुंच सके हैं, मार्ग सही है या नहीं, आगे अब क्या करना है, कब कौन से संस्कार प्रगट होंगे, उनसे कैसे पार पाना है…. इत्यदि, ये सारा भार सद्गुरु, “तत्वदर्शी पूर्ण महापुरुष” के कंधों पर रहता है। अपने से नहीं चल कर केवल उनकी अंगुली पकड़कर और मात्र निमित्त बनकर समर्पण के साथ खड़े रहना पड़ता है। सब कुछ निर्णायक और अत्यन्त सुगम। लेकिन आसान नहीं है पूर्ण समर्पण। अत्यंत कठिन है।
महापुरुष सबको नहीं साधते। पूर्व जन्मों के पुण्य पुंज का भंडार जिसके पास होता है, उसको महापुरुष साधते हैं। महापुरुषों के पास अपनी वाणी संचारित कर देने की अद्दभुत क्षमता होती है। वो सब जानते हैं। जिसको चाहते हैं उसको सब जना भी देते हैं। लेकिन इसके लिये अनन्य भक्ति और पूर्ण समर्पण की क्षमता होनी चाहिए। अपनी बुद्धि से चलने वाला भक्ति मार्ग पर कभी नहीं टिक सकता। महापुरुष हमारे स्वाध्याय की दशा और दिशा भी स्वयं निर्धारित करते रहते हैं। भक्त आराम की नींद सो लेने में समर्थ भी हो जाता है। युद्ध में निमित्त बन कर खड़ा भर रहता है, युद्ध करता कोई और है।

यदि सक्षम गुरु की कृपा और उनके आदेशों का सहारा लेकर समर्पित भाव से चलें तो केवल निमित्त बन जाने से ही सब कुछ संभव अत्यंत सुगमता से हो जाता है। कुछ पता ही नहीं लगता। हां, सफर में धूप तो होती ही है, किंतु जिसे चलना है वो चल ही पड़ता है। केवल उनकी कृपा बरसती रहनी चाहिए।
🙇🙇🙇🙇🙇.

वाणी या पुस्तक से केवल माइलस्टोन का पता लगता रहता है। ये बहुत बड़ी मदद है। स्वाध्याय का मैं भी समर्थक हूं। भगवद गीता मे भगवान ने इसे दैवी सम्पद को प्राप्त पुरूष में पाए गए अनेकों लक्षणों मेँ से एक बताया है। ये आंशिक रूप से हममें रहता है। स्वाध्याय का अर्थ ही है स्वरूप की तरफ अग्रसर कराने वाला अध्ययन। किंतु यथार्थ अध्ययन, काल्पनिक नहीं।

मैं तो परम आदरणीय पूज्य गुरुदेव का एक अत्यंत साधारण सेवक हूं। मेरे जो भी उदगार हैं, उनसे भिक्षा स्वरूप प्राप्त हुए हैं। मेरा अपना ना कुछ था, ना है ना कभी रहेगा। उनके कसौटी पर खरा उतर सकूँ, इसके लिए ही अनवरत संघर्ष कर रहा हूँ और करता रहूंगा। उनके आदेशों का अक्षरशः पालन करने की सतत चेष्टा कर रहा हूँ।

पूज्य गुरुदेव की शिक्षा है कि यह प्रकृति एक जुआ है। यही ठगिनी है। इस प्रकृति के द्वंद से निकलने के लिए दिखावा छोड़कर छिपाव के साथ गुप्त रूप से भजन करना यद्यपि छल अवश्य है किन्तु आवश्यक है। जड़भरत की तरह उन्मत्त, अंधे बहरे, और गूंगे की तरह हृदय से जानकार होते हुए भी बाहर से ऐसे रहें कि अनजान हों, सुनते हुए भी न सुने, देखते हुए भी भी न देखें। छिप कर ही भजन का विधान है, तभी साधक प्रकृति-पुरुष के जुए में पार पाता है। इस योग में निश्चयात्मक क्रिया एक है, बुद्धि एक ही है, दिशा एक जैसी है और क्रियात्मक बुद्धि स्वयं इष्ट की देन है।

मेरे विचार से जब तक आत्म स्थिति न प्राप्त हो जाय, तब तक रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श पर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए। आध्यात्मिक अनुशासन की घेरेबंदी अति आवश्यक होती है। हां, यदि आदेशित हो जाएं तभी अपनी आत्मानुभूतियों को अत्यंत संक्षिप्त रूप में और सावधान होकर बाहर लाना चाहिए। इससे अहंकार स्पर्श नहीं कर पाता। किंतु ऐसा मेरा विचार है, जरूरी नही कि सभी को मान्य हो।

ये यात्रा निश्चित रूप से अनिवर्चनीय है और शब्दों में इसकी अनुभूतियों को बांधना असंभव प्रयास है। इसलिए प्राप्ति के पश्चात अनेकों महापुरुष वाणी से मौन हो जाते हैं। केवल वे ही आगे मार्ग दर्शक का कार्य भार वहन करते हैं जिन्हें ईश्वर स्वयं सद्गुरु का कार्य भार सौप देते हैं।

********


The world is full of many viewpoints. I have great respect for everyone’s point of view and a lot of respect for Gyan Yogis (Followers of Way Of Knowledge). But I am very much interested in Bhakti Yoga (Way of Selfless Action/ Devotion).


Complete dedication towards God himself keeps showing the path. How far we have reached, whether the path is right or not, what to do next, when will the sanskars appear, how to overcome them….etc, all these burdens are on the shoulders of Sadguru, the “Tatvdarshi Purna Mahapurush” (One who is Knower of Essence). Not walking on your own, you have to stand with surrender only by holding His fingers and being just an instrument. Everything becomes decisive and very simple. But it is not easy to surrender completely rather very, very difficult.

Totally accomplished and fully enlightened sage does not accept everyone as disciple. The one who has the accumulation of divine virtues earned during previous births, gets refuge in HIM. Such sage has amazing ability to transmit / transplant HIS divine wisdom to devoted and dedicated disciples. HE knows everything. But for this one must have the capacity of exclusive devotion and total surrender. One who walks with own intellect can never stay on the path of devotion. Accomplished sages themselves keep determining the condition and direction of our spiritual efforts towards Self Attainment. The devotee also becomes anxiety free and able to sleep comfortably. He just stands by as an instrument in this spiritual war happening within inner realm, and finds that  someone else is combating..

If you walk with a dedicated spirit, taking the help of the grace of a capable Enlightened Guru and his divine instructions, then everything becomes within approach very easily just by becoming an instrument. And yes, there are
sunstroke in the journey, but the one who has to walk, walks anyhow. Only HIS grace should continue to shower.
🙇🙇🙇🙇🙇.
.
Only milestones are known through words or books. But this is a great help. I am also a supporter of Swadhyay. In the Bhagavad Gita, Revered Krishna has described this as one of the many characteristics found in a man who has attained divine wealth. It partially resides in us. The meaning of Swadhyay is the study which leads to the own divine form . But real study, not imaginary.

I am a very ordinary servant of the most respected revered Gurudev. All the words of mine have been received in the form of alms. I had nothing of my own, nor have, nor will have it ever be. To be able to live up to HIS criteria, I am continuously struggling for this and will continue to do so. I am constantly trying to follow his instructions literally.

Revered Gurudev teaches that this nature is a gamble. This is cheater. To come out of this duality of the nature, leaving show off and performing worship in secret with concealment, although is deceit but definitely necessary. Maniac like Jadbharat (a honest devotee), blind, deaf and dumb, yet being knowledgeable by heart, remain from the out side in such a way that you are ignorant, do not hear even while listening, do not see even while seeing. There is a sacred process of worship totally in secret, only then the seeker can cross the yoke of Prakriti-Purush. In this Yog, the determined action is one, the intellect is the only one, the direction is the same and the active intellect itself is the gift of God.

In my opinion, until the state of Self is attained, there should be complete control over form, taste, smell, word and touch. The encirclement of spiritual discipline is essential. Yes, if instructed and allowed, then only one should bring out one’s divine experiences in a very brief form but very carefully. By this, the ego cannot touch in any case. But this is my opinion, not necessarily acceptable to everyone.

This journey is definitely indescribable and it is an impossible
endeavour to capture its feelings in words. That’s why many fully accomplished and totally enlightened sages become totally silent from speech after attainment. Only they carry forward the work of a spiritual guide to whom God Himself entrusts the work of a Sadguru.

https://youtu.be/GJ6gIBrLTTA

विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।

Humble Wishes.
~mrityunjayanand.

🙏🙏🙏

Bookmark the permalink.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.