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लावणी सुन बारहमासी।
कटै जासे जन्म मरण फांसी।
अब आप उस लगन के बारे में सुनें, जिसमें आठो पहर बारहों महीने निरंतर लगे रहने पर जन्म मरण की फांसी कटती है और परम चेतन स्वरूप को जीव प्राप्त हो जाता है। ऐसे लगन का सदा महत्व रहा है जो जन्म मरण की फांसी काटने में समर्थ है।
(साधना क्रम में बारह महीने हैं। जिसमे हम यहां केवल चैत्र मास और क्वार (अश्विन) मास के आध्यात्मिक संदेशों का आध्यात्मिक अध्ययन पवित्र पर्व नवरात्र के परिप्रेक्ष्य में करेंगें।)
चैत में चिंता यह कीजै,
कि यह तन घड़ी घड़ी छीजै।
इससे करिये तनिक विचार
सार वस्तु है क्या संसार।
फिर क्या मथुरा अरु कासी।
लावनी सुन बारहमासी।।
जब हम परिस्थितियों में हैं तो सिद्ध है कि चैतन्यता नहीं है। अब चैतन्य होने के लिए शरीर की स्थिति पर विचार कीजिये कि यह हर घड़ी नष्टप्राय होता जा रहा है। भोग्य पदार्थ ही तो संसार है। जैसा कि “मैं अरु मोर तोर तैं माया”। तो आखिर सत्य क्या है?
सत्य वस्तु है आत्मा, मिथ्या जगत प्रसार।
नित्या नित्य विवेकिया, लीजै बात विचार।।
सत्य वस्तु अथवा जो परमसत्य है, वह है आत्मा। यह महापुरुष का निर्णय है। जगत का प्रसार देखने में बड़ा सुंदर है, परन्तु है सर्वथा झूठा। ‘नित्यानित्य विवेकिया’- सत्य क्या है और असत्य क्या है? इस पर विवेक करें। तभी सत्य अवतरित होगा।
काशी, मथुरा आदि तीर्थों में भ्रमण करने से अब इस लगन का कोई महत्व नहीं है। यह तो मानसिक प्रवृत्ति है जो प्रभु के ओर निरन्तर प्रवाहित होती रहती है और इससे जन्म मरण का बन्धन टूट जाता है।
क्वार में करना यही उपाय
तत्वमसि श्रवणन मन लाय।
जुगुति से मनन करो प्यारे,
खुले जासे अंदर के ताले।।
हानि हो जिससे चौरासी।
लावणी सुन बारहमासी।।
क्वार ( विकारों का कट जाना)। ‘कु’ कहते हैं दूषित को और ‘अर’ कहते हैं काटने को। साधक के द्वारा ज्यों-ज्यों विकारों का शमन होता जाएगा, त्यों-त्यों उसे तत्वमसि का आदेश मिलने लगेगा, जैसा कि सद्गुरु पुर्व में ही कहतें हैं कि जब हृदय शुद्ध हो जाएगा तो उस तत्वमसि का संचार मैं करूँगा। अंदर से मिलने वाले आदेशों का श्रवण करना एवं उसी में मन लगाना, बस साधक के लिए इतने ही उपाय का विधान है। साधक मन को उस तत्व में स्थिर कर युक्तिसहित उसका मनन करता जाय, ताकि अन्दर के ताले खुल जायें, जो आत्मा और परमात्मा में अंतर डाले हुए हैं।
वह आदेश क्रमशः मिलता है। जब तक अंतिम स्थिति वाला आदेश नहीं मिल जाता, तब तक किसी न किसी रूप में ताला लगा ही रहता है। अब रही युक्ति से मनन करने की बात, उसके लिए जैसा कि राम नाम कहते हैं, वैसा नहीं है। जब यही नाम मनन की स्थिति में आ जाता है, तब उसका वाणी से कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता।
निदिध्यासन के अंत में, ऐसा होवे भान।
ब्रम्ह आत्मा एक लख, तब होय ब्रम्ह का ज्ञान।
निदिध्यासन के अन्त में ऐसा भान होने लगता है कि ब्रह्म और आत्मा परस्पर एक ही हैं और इस एकत्व दर्शन का परिणाम ही ब्रह्मज्ञान है।
हर पहलू की दो सीमाएं हुआ करती है-एक अधिकतम और दूसरी न्यूनतम (प्रवेशिका एवं पराकाष्ठा)। उदाहरण के लिए भक्ति को लीजिये। जहां से भक्ति की शुरुआत है, वह उसकी न्यूनतम सीमा है और जहां वह लक्ष्य को प्राप्त करने की स्थिति में आ जाती है, वह अधिकतम सीमा कहलाती है। इस प्रकार निदिध्यासन, जहां से चिन्तन के द्वारा हमारा जड़-अध्यास मिटने लगता है, वह प्रवेशिका है और चिन्तन के पूर्णता में जहां अध्यास समाप्त हो जाता है, वही पराकाष्ठा अर्थात अन्त कहलाता है।
यह वास्तव में आवागमन के हानि का अंतिम स्तर है अर्थात अधिकतम मंज़िल मिल रही है।
~ स्वामी अड़गड़ानंद जी।
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“बारहमासी”, परम आदरणीय परम पूज्य स्वामी परमानन्द जी परमहंस महाराज के अनुभव में आकाशवाणी के माध्यम से अवतरित रचना पर पूज्य गुरुदेव द्वारा आध्यात्मिक विवेचना के परिवेश में भारत के महान पर्व “नवरात्रि” का चैत्र और अश्विन (क्वार) मास में पवित्र अवतरण और उसके सामयिक संदेशो के अद्भुत समावेश का तुलनात्मक अध्ययन मात्र सांयोगिक ही नहीं अपितु अत्यंत प्रायोगिक एवं हृदयस्पर्शी लगता है। पहले सत्य का अवतरण तत्पश्चात चिन्तन के पूर्णता में अध्यास की समाप्ति पर पराकाष्ठा का स्पर्श होना जो आवागमन का अंतिम स्तर है।
“बारहमासी”, परम आदरणीय परम पूज्य स्वामी परमानन्द जी परमहंस महाराज के अनुभव में आकाशवाणी के माध्यम से अवतरित रचना पर पूज्य गुरुदेव द्वारा आध्यात्मिक विवेचना के परिवेश में भारत के महान पर्व “नवरात्रि” का चैत्र और अश्विन (क्वार) मास में पवित्र अवतरण और उसके सामयिक संदेशो के अद्भुत समावेश का तुलनात्मक अध्ययन मात्र सांयोगिक ही नहीं अपितु अत्यंत प्रायोगिक एवं हृदयस्पर्शी लगता है। पहले सत्य का अवतरण तत्पश्चात चिन्तन के पूर्णता में अध्यास की समाप्ति पर पराकाष्ठा का स्पर्श होना जो आवागमन का अंतिम स्तर है।
विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द ।
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