“सबसे अधिक बुद्धि वाला मानव समाज ही आज प्रेम और करुणा से किस कारणवश अकारण वंचित होता जा रहा है…???

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“सबसे अधिक बुद्धि वाला मानव समाज ही आज प्रेम और करुणा से किसी कारणवश अकारण वंचित होता जा रहा है। “किसी कारण वश”क्या है?? आखिर संत-स्वामी इस की विवेचना कब करेंगे?? क्या महाविनाश के बाद??
यदि समय पर “काम” नहीं हो तो उसका कोई सुखद-सर्वहित से क्या लेना-देना…!!!!”
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एक जिज्ञासु का मेरे से पूछा गया प्रश्न हृदयस्पर्शी लगा और मेरी छोटी सी समझ ने मुझे कुछ इस तरह से उत्तर प्रेषित करने के लिए प्रेरित किया।
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सम्पूर्ण विश्व में सिर्फ भारत ही एक ऐसा देश है जिसकी पृष्ठभूमि सर्वदा आध्यात्मिक रही है। हमारे रगों में ऋषियों मुनियों का रक्त प्रवाहित है। हम उनके वंशज हैं और ये हमारे लिए अत्यंत गर्व की बात है। लेकिन अब उस रक्त की हरारत ठंढी पड़ती जा रही है। क्या हम कभी इस पर गंभीरता से विचार करते हैं? आध्यात्मिक जीवन एक अत्यंत कठिन अनुशासित जीवन होता है और अपनी कीमत मांगता है। क्या हमारे गुर्दों में अब उस कीमत को चुकता करने की क्षमता रह गयी है? क्या हम अपनी आत्मा के आधिपत्य में आत्मा के विज्ञान का वास्तविक आध्यात्म अध्ययन हेतु प्रयत्न करने के लिए तैयार हैं?

हमारी भौतिक भूख और भोंगो को अत्यंत विकृत कर भोगने की प्रबल चाहत ने हमें क्षद्म आध्यात्म के फंदे में फंसा रखा है।

हमारी इस प्रचंड भूख ने हमें बनावटी तथाकथित संतों और व्यवसायिक आश्रमों की आग में झोंक रखा है। हम अपने तुच्छ स्वार्थ सिद्धि और बनावटी भाषा को ही वास्तविक आध्यात्म समझते हैं। महापुरुष शांत भाव से एकचित्त परमात्मा के इस दैवीय खेल को केवल निहार रहा है। परमात्मा ने उसके हाथ रोक रखे हैं जिससे हमें हमारे कुकृत्यों का उचित परिणाम मिल सके। महापुरुष ने जान लिया है की आज की पीढ़ी को केवल नग्न और घृणित भौतिक श्रेय चाहिए और उससे परम श्रेय की चर्चा भी करना अर्थहीन है।

संत तुलसी ने मानस में गायन किया है:

करम बचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार।
तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार॥

जब तक कर्म, वचन और मन से छल छोड़कर मनुष्य आपका (एक परमात्मा का) दास नहीं हो जाता, तब तक करोड़ों उपाय करने से भी, स्वप्न में भी वह सुख नहीं पाता।

क्या हमारी रहनी और सोच इस उपदेश को स्वीकार कर हृदयंगम करने को वास्तव में तैयार है?

महर्षि वेद व्यास ने भगवद्गीता में परमात्मा श्री कृष्ण के इस उपदेश को चिन्हित किया है।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।

अर्जुन! मेरे में ही मन वाला हो। सिवाय मेरे दूसरे भाव मन में न आने पायें। मेरा अनन्य भक्त हो, अनवरत चिंतन में लग। श्रद्धा सहित मेरा ही निरंतर चिंतन कर और मेरे को ही नमस्कार कर। इस प्रकार मेरी शरण हुआ, आत्मा को मुझमें एकीभाव से स्थित कर तूं मुझे ही प्राप्त होगा, मेरे साथ एकता प्राप्त करेगा।

पुनः कहते हैं:

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥

अर्जुन! तू मेरे में ही अनन्य मन वाला हो, मेरा अनन्य भक्त हो, मेरे प्रति श्रद्धा से पूर्ण हो, मेरे समर्पण में अश्रुपात होने लगे, मेरे को है नमन कर। ऐसा करने से तू मेरे को ही प्राप्त होगा। यह मैं तेरे लिए सत्य प्रतिज्ञा करके कहता हूं, क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है।

क्या हम महापुरुषों की इस विवेचना को हृदय से स्वीकार कर, इस मार्ग पर चलने के लिए तैयार हैं?

संत कबीर कहते हैं:

मेरा तेरा मनवा कैसे एक होइ रे।
में कहता हूं जागत रहिये, तूं जाता है सोई रे।।

क्या हम महापुरुषों के अनुसार जागते रहने के लिए तैयार हैं?

हम भूल गए हैं कि हमने परमात्मा से मनुष्य योनि कितना रो रो कर और क्या प्रतिज्ञा करके मांगा था। 75 वर्ष की आयु में भी विवाह या विवाह की वर्षगांठ मनाने की प्रबल अभिलाषा रखने वालों को कैसे समझाया जाय कि इस अवस्था में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर का त्याग कर विवेक, वैराग्य, शम, दम, तेज और प्रज्ञा अर्जित करना ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। यदि अर्जित करने की क्षमता न हो तो कम से कम निश्छल हृदय में संकल्प तो अवश्य उठना चाहिए।

परमात्मा से दूरी बनाकर प्रेम और करुणा के भाव की भिक्षा कभी नहीं मिल सकती। हमारी पाशविक प्रवृत्ति का यही मुख्य कारण है। हमारी गंदी सोच  इसकी जड़ें और गहरी करने में सहायक सिद्ध हो रही हैं। आज का पूरा मानव समाज इस अंधी दौड़ में लूले लंगड़े की दौड़ लगा रहा है और सभ्यता/संस्कृति का नारा बुलंद कर रहा है।

महापुरुष केवल उचित पात्रों के ही पात्र में ज्ञान की भिक्षा देते हैं, विवेचना की झड़ी लगा देते हैं, बाकी लोंगो को अपने अपने अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के लिए नश्वर संसार में गोता लगाने के लिए छोड़ देते हैं। संभवतः यही परमात्मा का भी आदेश उनके लिए होता है यद्यपि करुणा उनके स्वभाव और रोम रोम में समाहित होता है। महाविनाश को गले लगाने की इच्छा रखने वालों को न तो सद्बुद्धि दी जा सकती है ना ही विषय रूपी विष का विषपान करने से रोका जा सकता है। शायद ऐसे लोंगो का जन्म ही महा विनाश का कारण बनाने के लिए होता है।


विनम्र शुभकामनाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
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