A Humble Prayer…..!!!

मेरा मत है कि हम लोंगो को अत्यधिक विस्तार की अपेक्षा अब अपने आध्यात्मिक विचारों को अत्यंत सावधानी से संयत रखने की अधिक आवश्यकता है। मुझे लगता है कि आध्यात्मिक ग्रंथों के यौगिक शब्दों को केवल यौगिक दृष्टिकोण, यौगिक प्रक्रिया के माध्यम एवं किसी तत्वनिष्ठ, परमात्म भाव में स्थित पूर्ण महापुरुष के प्रमाणित वाणी द्वारा ही समझने या समझाने में कल्याण है। विशेष कर भगवदगीता के यौगिक शब्दों को समझने या समझाने में बहुत सतर्क रहने की आवश्यकता है।

इसके यौगिक शब्दों में अपने आप को समाहित कर संभवतः उन मनोगत भावों का अवश्य स्पर्श करने का भरपूर प्रयत्न करना चाहिए जो मनोगत भाव भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन के थे युद्ध के उस विषम परिस्थिति में, और जो वाह्य नहीं अपितु आंतरिक हैं और अन्तर्देश में ही घटित होते हैं। गीता गुरु-शिष्य संवाद है। इस महाग्रंथ में वर्णित कठिन तपश्चर्या के अनुसार आध्यात्मिक जीवन यापन के परिणाम स्वरूप अन्तर्देश में इसके सार गर्भित रहस्य धीरे धीरे मुखरित होकर अपने ज्ञान पुंज के प्रकाश को प्रसारित होने की क्षमता एवं तत्पश्चात  व्यक्त करने की अनुमति देते हैं। भगवद गीता कोरे साहित्य की साधारण पुस्तक नहीं है जो मात्र शैक्षणिक स्तर का विषय होकर व्यक्ति का व्यक्ति से साधारण संवाद का कारण बने। यह महापुरुषों का विषय है, किसी सामान्य व्यक्ति का नहीं जो जब जो चाहे व्यक्त करे या लिख कर पुस्तकों का रूप देकर प्रकाशित कर दे। यही कारण है कि इसे केवल वाह्य स्तर पर ही नहीं अपितु अन्तर्देश में किसी पूर्ण महापुरुष द्वारा अत्यंत सुगमता से समझाने या समझा जाने का विधान है। महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण की वाणी केवल अर्जुन ही सुन समझ सका, बाकी सभी विद्वान अथवा योद्धा मूक दर्शक बन कर खड़े रहे और समझ भी नहीं सके कि क्या हो रहा है?

भगवद गीता आत्मा का अध्ययन सिखाती है। इसीलिए इसकी प्रामाणिक आध्यात्मिक व्याख्या सामने पड़ते ही स्वयं अपनी आत्मा ही उसकी पहचान कर, अविलंब उसे स्वीकार कर आत्मसात कर लेती है।
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मन बहुत ही चंचल और चालाक होता है। वाचाल होना उसकी प्रकृति है जिससे अनगिनत वृत्तियों का सृजन होता है। हम दिशाहीन हो जाते हैं और इधर उधर भटक कर अनावश्यक उद्देश्यों के पूर्ति हेतु जीवन के प्रमुख उद्देश्य को भूल जाते हैं। वृत्तियों का विस्तार हानिकारक है क्योंकि परमात्मा से दूरी बढ़ जाती है। मन को तो कोई न कोई विषय चाहिए जिसमें उलझ कर ईश्वर के तरफ उन्मुख न होने का बहाना बना ले और सांसारिक विस्तार को जन्म देकर पूर्णतया निरुद्ध होने से बचता रहे। हम सब के लिए यहीं से भूलभुलैया का जटिल जाल बनना शुरू हो जाता है जिसमें फसने के कारण जीवन मृत्यु का बंधन काटना असंभव सा लगने लगता है। हम यहीं से और इसी से निराश हो जाते हैं।

यदि अब मानवता को बचाना है तो हमें अपने सभी सद्ग्रन्थों की निर्विवाद और भ्रमरहित व्याख्या को विश्व पटल पर पहुंचाना ही होगा ताकि मानवता का सर्वांगीण कल्याण हो सके। मैंने जीवन में देश विदेश की विश्वस्तरीय कई बड़ी लाइब्रेरियों को देखा है जहां स्कॉलरों की करोड़ों पुस्तकें धूल चाट रहीं है किंतु मनुष्य अज्ञानता के जाल से बाहर नहीं निकल पा रहा है। सोशल मीडिया पर ज्ञान का महासमुंद्र उमड़ पड़ा है किंतु सम्पूर्ण मानवता अंधेरे में पड़ी है। क्यों? इस कडुए सत्य को हमें स्वीकार करना ही होगा और इसका समुचित हल ढूंढना ही होगा।

हो सकता है मेरे विचार उचित न लगें। किंतु अब हम सभी को किसी ठोस संकल्प के साथ ठोस कदमों और विचारों से आगे बढ़ने का संकल्प लेना ही होगा और सम्पूर्ण मानव सम्माज को भय और भ्रम के वातावरण से मुक्ति दिलाने का अथक प्रयास करना ही होगा, यही मेरी प्रार्थना है।

I am of the opinion that we need more careful moderation of our spiritual thoughts now than its excessive expansion. I think that it is better to understand or explain the metaphysical words of spiritual texts only with the metaphysical approach, metaphysical process and through the authentic spiritual discourses of any fully accomplished and totally enlightened sage who is truly knower of the essence of God. There is a need to be very careful especially in understanding or explaining the metaphysical words of Bhagavad Gita.

By including oneself in its metaphysical words, perhaps one should make every effort to touch those sacred divine feelings and emotions, which were of Shri Krishna and Arjuna in that difficult situation of Mahabharat war, and which are not external but fully internal and happening within inner realm. Bhagavad Gita is a Guru-disciple dialogue. As a result of living a spiritual life according to the rigorous austerity described in this epic, the divine secrets contained in its essence in the interior gradually emerge, allow the ability to spread the light of its wisdom and then to express it. Bhagavad Gita is not an ordinary book of simple literature which, being treated merely as a subject of academic level, becomes a reason for simple conversation between person to person. This is the subject of fully enlightened and totally accomplished sages, not of any ordinary person who can express or write whatever he wants and publish it in the form of books at any time and any where. This is the reason why there is a must need to get explained or understood this divine wisdom very easily by a noble fully accomplished master, not only at the external level but also internally. In the war of Mahabharata, only Arjun could understand and listen to Shri Krishna’s voice, all the other scholars or warriors stood as mute spectators and could not even understand what was happening?

The Bhagavad Gita teaches the study of the soul. That’s why as soon as its authentic spiritual explanation comes in front, our own soul recognises it, accepts it and imbibes it without delay.
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The mind is very fickle and clever. It is its nature to be talkative due to which countless instincts/dispositions are created. We become directionless and forget the main purpose of life by wandering here and there to fulfil unnecessary purposes. The expansion of instincts/dispositions is harmful because of which the distance from God increases. The mind searches some or the other material subject in which it can get entangled and make an excuse for not turning towards God and by giving birth to worldly expansion, it avoids in getting completely restrained. For all of us, it starts to become a complex web of labyrinth, in which it seems impossible to cut the bond of life and death due to getting horribly trapped. This is where we get totally disappointed.

If humanity has to be saved now, then we have to bring the undisputed and confusion-free interpretation of all our scriptures to the global stage so that the all-round welfare of entire mankind can happen. In my life, I have seen many big world-class libraries of the country and abroad, where crores of books of scholars are biting the dust, but man is not able to get out of the trap of ignorance. The ocean of knowledge has overflowed on social media but the whole humanity is lying in darkness. Why? We have to accept this bitter truth and find a proper solution for it.

My thoughts may not seem right. But now we all have to take a pledge to move ahead with concrete steps and thoughts with a concrete resolution and will have to make tireless efforts to free the entire human society from the atmosphere of fear and confusion, this is my prayer.

 

विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
-मृत्युञ्जयानन्द-

Humble Wishes.
~ mrityunjayanand.
🙏🙏

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