Who surely achieves total oneness with God……..???

The man who finally,
that is,
when he has perfect control over his mind
and
when even this mind is dissolved,
severs his relationship with the body and departs from it
with remembrance of Him,
surely achieves total oneness with God.

Death of the body is not the final end,
for the succession of bodies continues even after death.

It is only when the last crust
of
earned merits or demerits (sanskar) has disintegrated,
and so also the restrained mind along with it,
that the final end comes,
and after that the Soul does not have to assume a new body.

But this is a process of action
and
it cannot be rendered comprehensible by just words.

As long as the transfer from one body to another,
like a change of clothes,….. persists,
there is no real end of the physical person.

But even while the body is yet alive,
with control of the mind and dissolution
of
the restrained mind itself,
physical relationships are sundered.

If this state were possible after the event of death,
any one could not be perfect.
Only by worship carried on through innumerable births
does a sage gain identity with him.

The worshiper then dwells in him and he in the worshiper.

There is then not even the least distance between them.
But this achievement is made during a physical life.

When the Soul does not have to assume a new body……..
that is the real end of the physical body.

This is a portrayal of real death after which there is no rebirth.

At the other end there is physical death
which the world accepts as death,
but after which the Soul has to be born again.

~Swami Adgadanand Jee Paramhams.©

Humble Wishes.
~mrityunjayanand.
🙇🙇🙇🙇🙇

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Fire is a symbol of God’s radiance as day is of knowledge……!!!

Fire is a symbol of God’s radiance as day is of knowledge.
The bright half of a lunar month stands for purity.
The six virtues of discrimination, renunciation, restraint, tranquility, courage and intellect
are
the six months of the ascendant motion of the sun.
The state of upward motion is the progress of the sun to the north of the equator.
Enlightened by knowledge of the reality which is quite beyond nature,
sages attain to God
and
they are then not reborn.

That Soul is yet far removed from God who departs from the body
when the sacred fire of his yagya is smothered by smoke,
when the night of ignorance prevails,
when the moon is waning in the dark half of a month,
when gloom prevails on all sides
and
the outward-looking mind is infested with
the six vices
of
passion, wrath, greed, delusion, vanity and malice;
and
he is reborn.

~Swami Adgadanand Jee Paramhans.©


Humble Wishes.
~mrityunjayanand.
🙇🙇🙇🙇🙇

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“सबसे अधिक बुद्धि वाला मानव समाज ही आज प्रेम और करुणा से किस कारणवश अकारण वंचित होता जा रहा है…???

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“सबसे अधिक बुद्धि वाला मानव समाज ही आज प्रेम और करुणा से किसी कारणवश अकारण वंचित होता जा रहा है। “किसी कारण वश”क्या है?? आखिर संत-स्वामी इस की विवेचना कब करेंगे?? क्या महाविनाश के बाद??
यदि समय पर “काम” नहीं हो तो उसका कोई सुखद-सर्वहित से क्या लेना-देना…!!!!”
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एक जिज्ञासु का मेरे से पूछा गया प्रश्न हृदयस्पर्शी लगा और मेरी छोटी सी समझ ने मुझे कुछ इस तरह से उत्तर प्रेषित करने के लिए प्रेरित किया।
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सम्पूर्ण विश्व में सिर्फ भारत ही एक ऐसा देश है जिसकी पृष्ठभूमि सर्वदा आध्यात्मिक रही है। हमारे रगों में ऋषियों मुनियों का रक्त प्रवाहित है। हम उनके वंशज हैं और ये हमारे लिए अत्यंत गर्व की बात है। लेकिन अब उस रक्त की हरारत ठंढी पड़ती जा रही है। क्या हम कभी इस पर गंभीरता से विचार करते हैं? आध्यात्मिक जीवन एक अत्यंत कठिन अनुशासित जीवन होता है और अपनी कीमत मांगता है। क्या हमारे गुर्दों में अब उस कीमत को चुकता करने की क्षमता रह गयी है? क्या हम अपनी आत्मा के आधिपत्य में आत्मा के विज्ञान का वास्तविक आध्यात्म अध्ययन हेतु प्रयत्न करने के लिए तैयार हैं?

हमारी भौतिक भूख और भोंगो को अत्यंत विकृत कर भोगने की प्रबल चाहत ने हमें क्षद्म आध्यात्म के फंदे में फंसा रखा है।

हमारी इस प्रचंड भूख ने हमें बनावटी तथाकथित संतों और व्यवसायिक आश्रमों की आग में झोंक रखा है। हम अपने तुच्छ स्वार्थ सिद्धि और बनावटी भाषा को ही वास्तविक आध्यात्म समझते हैं। महापुरुष शांत भाव से एकचित्त परमात्मा के इस दैवीय खेल को केवल निहार रहा है। परमात्मा ने उसके हाथ रोक रखे हैं जिससे हमें हमारे कुकृत्यों का उचित परिणाम मिल सके। महापुरुष ने जान लिया है की आज की पीढ़ी को केवल नग्न और घृणित भौतिक श्रेय चाहिए और उससे परम श्रेय की चर्चा भी करना अर्थहीन है।

संत तुलसी ने मानस में गायन किया है:

करम बचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार।
तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार॥

जब तक कर्म, वचन और मन से छल छोड़कर मनुष्य आपका (एक परमात्मा का) दास नहीं हो जाता, तब तक करोड़ों उपाय करने से भी, स्वप्न में भी वह सुख नहीं पाता।

क्या हमारी रहनी और सोच इस उपदेश को स्वीकार कर हृदयंगम करने को वास्तव में तैयार है?

महर्षि वेद व्यास ने भगवद्गीता में परमात्मा श्री कृष्ण के इस उपदेश को चिन्हित किया है।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।

अर्जुन! मेरे में ही मन वाला हो। सिवाय मेरे दूसरे भाव मन में न आने पायें। मेरा अनन्य भक्त हो, अनवरत चिंतन में लग। श्रद्धा सहित मेरा ही निरंतर चिंतन कर और मेरे को ही नमस्कार कर। इस प्रकार मेरी शरण हुआ, आत्मा को मुझमें एकीभाव से स्थित कर तूं मुझे ही प्राप्त होगा, मेरे साथ एकता प्राप्त करेगा।

पुनः कहते हैं:

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥

अर्जुन! तू मेरे में ही अनन्य मन वाला हो, मेरा अनन्य भक्त हो, मेरे प्रति श्रद्धा से पूर्ण हो, मेरे समर्पण में अश्रुपात होने लगे, मेरे को है नमन कर। ऐसा करने से तू मेरे को ही प्राप्त होगा। यह मैं तेरे लिए सत्य प्रतिज्ञा करके कहता हूं, क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है।

क्या हम महापुरुषों की इस विवेचना को हृदय से स्वीकार कर, इस मार्ग पर चलने के लिए तैयार हैं?

संत कबीर कहते हैं:

मेरा तेरा मनवा कैसे एक होइ रे।
में कहता हूं जागत रहिये, तूं जाता है सोई रे।।

क्या हम महापुरुषों के अनुसार जागते रहने के लिए तैयार हैं?

हम भूल गए हैं कि हमने परमात्मा से मनुष्य योनि कितना रो रो कर और क्या प्रतिज्ञा करके मांगा था। 75 वर्ष की आयु में भी विवाह या विवाह की वर्षगांठ मनाने की प्रबल अभिलाषा रखने वालों को कैसे समझाया जाय कि इस अवस्था में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर का त्याग कर विवेक, वैराग्य, शम, दम, तेज और प्रज्ञा अर्जित करना ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। यदि अर्जित करने की क्षमता न हो तो कम से कम निश्छल हृदय में संकल्प तो अवश्य उठना चाहिए।

परमात्मा से दूरी बनाकर प्रेम और करुणा के भाव की भिक्षा कभी नहीं मिल सकती। हमारी पाशविक प्रवृत्ति का यही मुख्य कारण है। हमारी गंदी सोच  इसकी जड़ें और गहरी करने में सहायक सिद्ध हो रही हैं। आज का पूरा मानव समाज इस अंधी दौड़ में लूले लंगड़े की दौड़ लगा रहा है और सभ्यता/संस्कृति का नारा बुलंद कर रहा है।

महापुरुष केवल उचित पात्रों के ही पात्र में ज्ञान की भिक्षा देते हैं, विवेचना की झड़ी लगा देते हैं, बाकी लोंगो को अपने अपने अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के लिए नश्वर संसार में गोता लगाने के लिए छोड़ देते हैं। संभवतः यही परमात्मा का भी आदेश उनके लिए होता है यद्यपि करुणा उनके स्वभाव और रोम रोम में समाहित होता है। महाविनाश को गले लगाने की इच्छा रखने वालों को न तो सद्बुद्धि दी जा सकती है ना ही विषय रूपी विष का विषपान करने से रोका जा सकता है। शायद ऐसे लोंगो का जन्म ही महा विनाश का कारण बनाने के लिए होता है।


विनम्र शुभकामनाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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Never get trapped……!!!

An expression of self struggle
emerges with in
with such emotional drives to get bit relaxed simply..
but not to get trapped with it’s appearances.

Not to be ignorant of His abilities & faith in you,
May diminish these to this limited existence your’s …..
Instead of soaring through your being here,
You shuffle over the surface of each life,
claiming temporal ripples thus created
as the magnificent achievements of your’s…..
But
Never get trapped.

Ignoring the matter and depth of the ripples,
You exult in the height of splashes you create,
With realizing
the clouds that will rain this matter,
and those that are soaring galaxies,
ever changing through time,
too are your’s………….
But
Never to get trapped.

Traps are there…
At each stage of any action,
launched by us to struggle within.
And,
One who does not get trapped…
Finds the total emancipation..

A total liberation….
leaving behind all the traps….
Where the traps are trapped in their own traps.

Humble Wishes!!!
~mrityunjayanand~
🙏🙏🙏🙏🙏.

Inspired by post of dear Dilip Sharma jee.

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10151022517947955&set=a.414667817954.189615.563637954&type=3&theater

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True learning is that which enables the man who has acquired it to go along God’s way….!!!

True learning is that which enables the man
who has acquired it to go along God’s way
until he has won salvation.
If he gets entangled in the vanity of his achievements
or
in the material world while he is on the way,
it is evident that his learning has failed.
His learning, then, is not knowledge but a veil of ignorance.

It is only regal learning (rajvidya),
spiritual enlightenment,
which is profitable beyond any doubt.
It is the king of all “secret teaching” because one can approach it
only after the practice of yog is brought to perfection
by
the unraveling of the knots of both
knowledge and ignorance.

~Swami Adgadanand Jee Paramhans.

Humble Wishes.
~mrityunjayanand.
🙇🙇🙇🙇🙇

 

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Nature itself is a gambler and cheat……!!!!

Nature itself is a gambler and cheat.
To forsake outward show and engage in the way of private adoration
to
escape from the contradictions of nature is an act of “deception.”
But to call it “deception” is hardly appropriate,
for such secretiveness is essential to the worshipper’s security.
It is required that the worshipper,
although in possession of a heart that is lit up with knowledge,
appear outwardly ignorant like a benumbed Bharat-like one
who is insane, blind, deaf and dumb.
Although he sees, he should show as if he knows nothing;
although he hears, it should appear that he has heard nothing.
The canon of worship is that it should be private and secret.
Only then can he win in the gamble of nature.

~Swami Adgadanand Jee Paramhans.

Humble Wishes.
~mrityunjayanand.
🙇 🙇 🙇 🙇 🙇

 

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