Shree Ram is comprehensible through yogic experiences……….!!!!!!

Shree Ram is comprehensible through yogic experiences……….!!!!!!
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He hears without ears, sees without eyes, walks without legs, does every work without hands. Thus all his deeds are supernatural and unearthly. The implication is clear that such a Ram is comprehensible only through Yogic experiences, in other words such a being is subtle and he is Ram. So, is the conclusion drawn by Lord Shanker in Ram Charit Manas.
The birth of Ram is also noticeable:
One who remains unmanifested, which moves without legs, sees without eyes, gets embodied without body, takes birth in the lap of Kaushalya through loving devotion.
Kaushalya is actually the symbol of loving devotion. The root of the word Kaushalya is ‘Kosh’. Etymologically Kosh means the
center of the wealth. The spiritual wealth is the only lasting wealth and this is stored in devotions. For this reason she is known as Kaushalya.
He is the ocean of bliss, mass of joys, by just a single drop he is capable to give comfort and happiness to all the three worlds.
Since he is the abode of happiness, so he is named as Ram. He affords, repose and respite to all the creatures of the world. As he himself is the fountain of happiness, pain and sorrows never could touch him.
This body itself is Avadh. In it lies the immanent will to remain free, unbounded by anything. So it is known as Avadh.
The ruler of this body is Dasharath, which means the restraint over all the ten senses. Kaushalya representing devotee, Kaikei representing action, Sumitra representing right understanding,
Manthara representing perverted thinking and Vashishth representing knowledge, all live in such an Avadh.
What kind of knowledge does Vashishth represent? Does he stand for the knowlege of day today worlds affairs? No, it is not so.
The knowledge which enables one to put the adorable only under one’s sway is symbolized as Vashishth. This very knowledge is the true knowledge.
Now let us think – what is the special technique or method which brings the adorable only under one’s approach. That is the technique of managing the breath symbolised as Shringi Rishi. It is mentioned that Shringi Rishi performed the Yagya (sacrifice).
Jap itself is Yagya. Yagya is nothing but the management of inhalation and exhatation of breath. The purity of the heart is the ablation to the God of the Yagya. When such a Yagya is performed, Ram representing absolute knowledge appears on the lap of Kaushalya who stands for devotion.
Spiritual and accult experiences do start happening. When this development takes place Lakshman (discretion), Bharat (sentiment), Shatrughn (spiritual company) are also simultaneously born. After this unforeseen things are generated in the heart of the devotee, his conviction become stronger and the Vishwamitra (Conviction) descends.
~Revered Gurudev Swami Adgadanand Jee Paramhans~
Wishing a blissful RAMNAVAMI to all my friends around the globe.
Humble Wishes.
~mrityunjayanand~
                                                                                    🙏🙏🙏🙏

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“बार बार रघुबीर सँम्हारी……!!!!!”

“बार बार रघुबीर सँम्हारी।”
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पुण्यमयी रामनवमी पर महापुरुषों का विशेष संदेश…..!!!!!
(रामचरित मानस)
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यह ‘मानस’ है। मानस कहते हैं- मन को, अंत:करण को। ‘रामचरितमानस’ अर्थात् राम के वे चरित्र जो मन में प्रवाहित हैं। इसमें संसार ही समुद्र है, वैराग्यवान् पुरुष ही इसका पार पाता है।
निसिचरि एक सिन्धु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई।।
जीव जन्तु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।।
(मानस, 5/2/1-2)
सिन्धु में एक निशिचरी रहती थी। ‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।’ (गीता, 2/69)- इस जगतरूपी निशा में, चलने और चलानेवाली है, इसीलिए इसका नाम निशिचरी है। यह भवसिंधु में रहती है, और समुद्र में जिसकी परछाईं पड़ती है उसे दबोच लेती है, फिर वह नीचे गिर जाता है।
गहइ छाँह सक सो न उड़ाई।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई।।
(मानस, 5/2/3)
वह छाया को पकड़ लेती थी, जिससे जीव-जंतु उड़ नहीं पाते थे, उनकी गति कुंठित हो जाती थी। इसी प्रकार गगनचरों को, आकाश में उड़नेवालों को खा लिया करती थी।
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा।
तासु कपटु कपि तरतहिं चीन्हा।।
(मानस, 5/2/4)
वही छल उसने हनुमान के साथ किया। उसके कपटाचरण को हनुमान ने तुरंत पहचान लिया, फिर तो-
ताहि मारि मारूतसुत बीरा।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
(मानस, 5/2/5)
तुरंत उसे मारकर हनुमान समुद्र पार कर गए। वैराग्य ही हनुमान है- मान और सम्मान का हनन करनेवाला है, इसलिए वैराग्यरूपी हनुमान। पक्षी उड़ता तो आकाश में है किंतु जमीन का सहारा लेता है। केवल वैराग्यवान पुरुष ही इस संसार-सिन्धु के ऊपर उड़ान भरता है। वह भवसिन्धु से ऊपर उठना चाहता है, उठता भी है और क्रमश: उत्थान करते-करते परमतत्त्व परमात्मा में, भव से परे सत्ता में विलय पा जाता है।
जब पथिक चलता है तब,
‘निसिचरि एक सिन्धु महुँ रहई ।’- दूसरों की इच्छाशक्ति ही निशिचरी है। कोई अच्छा साधक अपनी साधना में अग्रसर होता जाता है तो दूसरे लोग मायिक विचारों को लेकर उससे टकराने लगते हैं। महिलाओं के लिए पुरुष या पुरुषों के लिए महिलायें ऐसा सोचने लगती हैं कि, “बाबा तो बड़े अच्छे हैं। न जाने कब से कटिबद्ध हैं, ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे हैं कितने अच्छे हैं। हमारे संगी साथी रहे होते तो कितना अच्छा होता।”- बस विषय की भयंकर वेदना लेकर वह चिंतन करेंगी। तहाँ उनका चिंतन ज्यों-का-त्यों वैराग्यवान् पुरुष के शान्त चित्त से टकरायेगा; क्योंकि चित्त तो सबका एक ही है। साधक यह निर्णय नहीं कर पाता कि ऐसा चिंतन आया कहाँ से। तुरंत उसी चिंतन से वह आक्रांत हो जाता है। वही भाव पनपते-पनपते कुछ ही समय में साधक को इसी संसाररूपी समुद्र में गिरा देता है। संसार ही समुद्र है। जिसमें विषयरूपी जल भरा है; किंतु–
बार बार रघुबीर सँभारी।
तरकेउ पवनतनय बल भारी।।
(मानस, 5/मंगलाचरण, चौ० 6)
जो निरंतर भगवान का स्मरण करता रहता है, जिसमें इष्ट का बल है, जो इष्ट के इशारों पर चलनेवाला है, उस विरक्त पुरुष में तुरंत इस छल को पहचानने की क्षमता होगी कि हमारे चिंतन तो गंदे थे ही नहीं, फिर ये कहाँ से आ रहे हैं? जिसके अंदर इस चिंतन के विभाजन के क्षमता होती है, अपने और पराये चिंतन को जो पहचानने लगता है, उसके ऊपर से इस संकल्पजनित संगदोष का प्रभाव टल जाता है। साधक जान जाता है कि ऐसा बुरा संकल्प कौन कर रहा है? जब चिंतन हमारा है ही नहीं, किसी अन्य की मन:स्थिति टकरा रही है। दुनिया में सब विषयी ही तो हैं, वे कुछ भी सोच सकते हैं; क्योंकि वे उसी क्षेत्र में खड़े हैं, उसी वायुमंडल में हैं और वे करेंगे भी क्या? अतः उन्हें माँ अथवा बहन कह दें, तो फिर संकल्पों की लहर जो साधक से टकरा रही थी, समाप्त हो जाती है। उनकी भाव-भंगिमा बदल जाती है।
संसाररूपी सिंधु में विषय-रस से ओत-प्रोत दूसरों की इच्छाशक्ति साधक के चित्त को पकड़ती है। यही परछाईं का पकड़ना है। जब साधक का चित्त विषय-चिंतन में आवृत्त होने लगता है तो वे संस्कार बन जाते हैं। परिणामत: वह श्रेय साधन से गिर जाता है; किंतु जिस साधक में इष्ट का बल है, अनुभवी आधार पर संकल्पों के विभाजन के क्षमता है, वह इसको सहज ही पार करके आगे निकल जाता है। साधक जानता है कि दुनिया प्राय: वही चिंतन करेगी जिसमें वह लिप्त है। जिसे सर्प ने काटा है, उसे लहर तो आयेगी ही। साधक भी तो पहले दुनिया में रहकर यही सब चिंतन करता था। जहाँ संकल्पों के विभाजन के क्षमता आयी, सांसारिक संकल्पों की लहर साधक के मन से विलग हो जाती है; किंतु यह क्षमता इष्ट को हृदय में सतत सँजोनेवाले साधक में प्रभु की कृपा द्वारा ही आती है। इष्ट द्वारा प्रदत्त अनुभव के बल पर ही साधक ऐसा कर पाता है।
ताहि मारि मारूतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
अतः भजन करो। वे दया के सागर हैं। तुम भी पाओगे।
~स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी परमहंस।©
विनयावनत,
~मृत्युञ्जयानन्द।
                                                                                  🙇🙇🙇🙇🙇
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राम, एक अनुभवगम्य आध्यात्मिक विश्लेषण……!!!!!

राम, एक अनुभवगम्य आध्यात्मिक विश्लेषण।
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जो आनंद के समुद्र हैं, सुख की राशि हैं, अपनी एक बूंद से त्रैलोक्य को सुपास प्रदान करने वाले हैं, वे राम हैं।अलौकिक अनुभूतियों के द्वारा, अंग स्पंदन के द्वारा, ध्यानजनित दृश्यों के द्वारा, स्वप्न के द्वारा, आकाशवाणी के द्वारा ईश्वरीय संकेत का नाम ‘राम’ है। यह राम के अनुभति की प्रारंभिक अवस्था है।
राम बिना मुंह के बोलते हैं, ध्यान में बोलते हैं, हृदय एवं मस्तिष्क में बोलते है, मन में बोलते हैं, उस बोली का नाम राम है। वह बिना पैरों के चलते हैं, साधक के साथ साथ चलते हैं, उनका नाम राम है। वह विज्ञान, अनुभवी उपलब्धि ही राम है। ‘भव’ कहते हैं संसार को, और ‘अनु’ अतीत को कहते हैं अर्थात भव से बाहर करने वाली जागृति विशेष (अनुभव) का नाम ही राम है। वह है उस परमात्मा की आवाज़ का हृदय में प्रस्फुटन!
वह संदेश भीतर सुनाई पड़ता है, दिखाई पड़ता है। इष्ट जब साधक की आत्मा से अभिन्न होकर जागृत हो जायँ, हृदय में दिखाई पड़ने लगें, पथ प्रदर्शन करने लेंगें, वही राम हैं। वह स्वयं आनंद सिंधु और सुखराशि हैं। “सीकर ते त्रैलोक सुपासी”- एक बूंद भी जिन साधक को देता है, उसे त्रैलोक्य में सुपास दे देता है, निर्भय बना देता है। “सो सुख धाम राम अस नामा।” वह सुख का धाम है, उसका नाम राम है।”अखिल लोक दायक विश्रामा” संपुर्ण लोक को विश्राम देने वाला वही एक स्थल है। यही अनुभव चलते चलते जब ईश्वर के समीप की अवस्था आ जाती है तो अनुभवगम्य स्थिति ही मिल जाती है। यह अनुभव साधक भक्त को अपने में विलय कर लेता है। यही राम की पराकाष्ठा है।
~स्वामी अड़गड़ानंद जी परमहंस।©
विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~मृत्युञ्जयानन्द।
                                                                                   🙇🙇🙇🙇🙇
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सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद…..!!!!!

सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद…..!!!!!
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“रचि महेश निज मानस राखा।”
शंकरजी ने इसे अपने मन के अन्तराल में रखा था ।
राम कथा के तेइ अधिकारी ।
जिन्ह के सतसंगति अति प्यारी ॥
गुर पद प्रीति नीति रत जेई ।
द्विज सेवक अधिकारी तेई ।
( मानस , 7 / 127 / 6-7 )
इस अवतरण में दसों इन्द्रियों की निरोधमयी वृत्ति ही दशरथ है , विषयों में तो निरोध होता ही नहीं- ‘
“जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई” ।
जहाँ निरोध हुआ , संयम सधा ,
सुरत भगवान से जुड़ी तो भक्ति जागृत हुई,’
“भक्तिरूपी कौशल्या !”
‘ सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोदा ‘
भगवान कौशल्या की गोद में आ गये , जागृत हो गये । विज्ञानरूपी राम ! जो आत्मा प्रसुप्त है , हृदय से जागृत होकर अनुभव प्रसारित करने लगती है ।
यह अवतार है जो किसी – किसी योगी के हृदय में
होता है।
भगवान पहले शिशुरूप में होते हैं ,
क्रमशः योगरूपी जनकपुर में पहुँचते हैं
जहाँ ध्यानरूपी धनुष है , चित्तचढ़रूपी चाप है ।
चित्त की चंचलता का क्रम टूट जाता है ,
ध्यान की स्थिति बन जाती है
तहाँ शक्तिरूपी सीता , राम शक्ति से संयुक्त हो जाते हैं । और जब तक चौदह वर्ष का वनवास अर्थात् अध्यात्म की चौदह भूमिकाएँ पूर्ण नहीं हो जाती , तब तक भाव ही श्रेष्ठ होता है , तब तक भरत राजा हैं।
साधक को श्रद्धाभाव से डूबकर भजन में लगना है
तब तक सीता भी अग्नि में समाहित रहती हैं ,
योगाग्नि में प्रसुप्त रहती हैं ,
मोहरूपी रावण से आवृत्त रहती हैं ।
भगवान ने उनसे कहा था
“सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला ।
मैं कछु करबि ललित नर लीला ।।
तुम्ह पावक महुँ करहुँ निवासा ।
जौ लगि करौं निसाचर नासा ॥”
( मानस , 3 / 23 / 1-2 )
~स्वामी अड़गड़ानंद जी परमहंस।
विनम्र शुभेक्षाओं सहित,
~ मृत्युञ्जयानन्द।
🙇🙇🙇🙇🙇.
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Bow down in your lotus feet O’Lord Ram on this coming great occasion of RAMNAVAMI…..!!!!!

Bow down in your lotus feet O’Lord Ram on this coming great occasion of RAMNAVAMI.
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O (Mann) mind! Invoke the benign Shree Ramachandra,the rescuer from the fears of the harsh sansar (world).
Whose eyes are blooming lotuses, face and hands lotus-like,and feet are like lotus —
with the hue of crimson dawn.
His image exceeds myriad Kaamdevs (Cupids),like a fresh, blue-hued cloud — magnificent.
His amber-robes appear like lightening, pure,captivating. Revere this groom of Janaka’s daughter .
Sing hymns of the brother of destitute, Lord of the daylight,the destroyer of the clan of Danu-Diti demons
The progeny of Raghu, limitless ‘anand’ (joy),the moon to Kosala, sing hymns of Dasharatha’s son.
His head bears the crown, ear pendants, tilak (mark) on forehead,his adorned, shapely limbs are resplendent,
Arms extend to the knees, studded with bows-arrows,who won battles against Khar-Dooshanam
Thus says Tulsidas, O joy of Shankara,Shesh (Nag), (Mann) Mind and (Muni) Sages,
Reside in the lotus of my heart, O slayer of the vices-troops of Kaama and the like.
श्री रामचन्द्र कृपालु भजुमन हरण भवभय दारुणं ।
नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं ॥१॥
कन्दर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरं ।
पटपीत मानहुँ तडित रुचि शुचि नोमि जनक सुतावरं ॥२॥
भजु दीनबन्धु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं ।
रघुनन्द आनन्द कन्द कोशल चन्द दशरथ नन्दनं ॥३॥
शिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अङ्ग विभूषणं ।
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खरदूषणं ॥४॥
इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनं ।
मम् हृदय कंज निवास कुरु कामादि खलदल गंजनं ॥५॥
मन जाहि राच्यो मिलहि सो वर सहज सुन्दर सांवरो ।
करुणा निधान सुजान शील स्नेह जानत रावरो ॥६॥
एहि भांति गौरी असीस सुन सिय सहित हिय हरषित अली।
तुलसी भवानिहि पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मन्दिर चली ॥७॥
॥सोरठा॥
जानी गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल वाम अङ्ग फरकन लगे।
Humble Wishes!!!
mrityunjayanand.
🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️.
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I adore the Lord of the universe bearing the name of Råma……!!!!!

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदांतवेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्
I adore the Lord of the universe bearing the name of Råma,
the Chief of Raghus line and the crest-jewel of kings,
the mine of compassion, the dispeller of all sins,
appearing in human form through His Måyå (deluding potency),
the greatest of all gods,
knowable through Vedånta, constantly worshipped by
Brahmå (the Creator), Shambhu (Lord Shiva)
and Sesha (the serpent-god), the bestower of supreme peace
in the form of final beatitude, placid, eternal, beyond the ordinary means of cognition, sinless and all-pervading.
Humble Wishes!!!
~mrityunjayanand.
                                                                                    🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️🙇‍♂️
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